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________________ राजीव और भाभी उन पर कच्ची नहीं बैठती। वह चश्मा लगाते हैं, और पाँच उनके लड़के हैं। भाई साहब के हितैषी हैं। यह सज्जन ज्यों-ज्यों सोसायटी में राजीव की कला की बड़ाई सुन लेते, त्यों-त्यों उसके प्रशंसक होना स्वीकार करते हैं। किन्तु राजीव के रंग-ढंग कुछ उन्हें अच्छे नहीं लगते । उसके स्वभाव के साथ जो एक प्रकार का खुलापन है, उससे इन सज्जन के चित्त में आपत्ति बनी रहती है कि राजीव को प्रौढ़ होने की आवश्यकता है, वह जिम्मेदार आदमी नहीं है। जब भाभी ने पाया कि किबाड़ 'अब खुले और अब खुले !' तब सहसा उन्हें छोड़कर पीछे की ओर वह भाग खड़ी हुई। बस, छज्जे पर से दूसरे घर में चली जाएंगी। तब ताका करें राजीव बाबू; हाँ, तो आए हैं बड़े... किन्तु छज्जे का इकपटा खोला ही था कि सामने पड़े वही शुद्ध आर्य सद्-गृहस्थ सज्जन ! वह कुर्सी पर इधर ही देखते हुए बैठे हैं, हाथ में किताब है । भाभी ने एक-दम लम्बा घूघट खींच लिया। वह ठिठकी और काठमारी-सी रह गई । छि-छि:, वह वहाँ गड़ ही क्यों न जा सकी। सज्जन ने सावधानतापूर्वक एवं मिठास के साथ कहा, "प्रोह, सेठानी जी हैं !" तभी पीछे से राजीव की आवाज़ भाभी के कानों में पड़ी, "अब कहाँ जामोगी, भाभी !" राजीव बढ़ता हुआ पास ही आ गया । भाभी को सब सूझना बन्द हो गया। वह मानो काँपने लगीं। राजीव विजय-गर्व में बोला, "अब कहो।" हाय-हाय, अब क्या होगा ! राजीव जीतेगा ? जीतेगा ? मझसे जीतेगा ? अच्छा !...भाभी को प्रांव दीखा न ताव, वह सामने की ओर भाग खड़ी हुई ! कुर्सी पर बैठे बाबू से छूती हुई, उनकी रसोई में से
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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