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________________ टकराहट १७ अपने हाथ से संतरे का रस पिला गये। उनके पागे किसी की हठ चलती है ! कला-चलो वह अच्छा हुआ। - लीला-तुम लोग जाने कैसी बात करती हो। खुद उपवास पर उपवास करती हो, मुझे मना करती हो । कैलाश जरा बात पर अनशन रखते हैं, मुझे एक जून खाना नहीं छोड़ने देते। देखती हूँ, तुम लोग स्वार्थी हो। मुझे बतायो, कैलाश क्या ऐसे हैं। वह तुम्हारे कौन हैं ? कला-कैलाश बन्धन-मुक्त आत्मा हैं । मैं बस उनके प्रकाश में चल रही हूँ। लीला-मालूम है, कहाँ चली जा रही हो ? कला-कहाँ पहुँचूगी, नहीं मालूम । चल ठीक रही हूँ तो पहुँचा गलत जगह नहीं जायगा। हम तो चल ही सकते हैं। पथ का अन्त तो पथिक के हाथ में नहीं है। लीला-तुम चल सकती हो, क्योंकि पास प्रकाश है। और चलने के लिये जी सकती हो। मेरे पास प्रकाश नहीं। पर गति तो भीतर भरी है । सवाल है कि चलू तो किधर । अँधेरे में चला तो जाता नहीं, टकराया भर जाता है। टकराते रहने को मैं कैसे जीऊँ ? कभी जी होता है कि कहीं जाकर ऐसी टकरा प कि टूटकर चुक जाऊँ । कला, मुझे तुम अपने प्रकाश को दे सकती हो ? . कला-लीला बहन, तुम क्या कह रही हो। तुम्हारा चित्त कैसा है । चलू, कैलाश क्या कर रहे हैं। कहूँगी, तुम्हें देखें। लीला-नहीं-नहीं। उनसे मुझे डर लगता है । वह मुझसे ऐसे बात करते हैं, जैसे में बच्ची हूँ। बतायो कला, क्या तुम्हें उनका डर नहीं लगता। कला-लगता है। तभी तो चाहती हूँ, उन्हें खबर कर दूं। उनकी
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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