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________________ • प्रेम की बात १४७ थीं, लेकिन नई थीं, १७ - १८ वर्ष की होगी । पर जमाना वह और था। देश में आन्दोलन था और उनका नाम था और वह जगह-जगह समाजों में बोलती थीं, और मालाएँ पाती थीं। मैं तब एक वालन्टीयर था और मेरी भी करीब वही उम्र थी, लेकिन मैं उन्हें दूर से देखता था, पास होता तब भी अपने को दूर लगता था । इससे उन्हें देखता था या उन्हें सुनता था । मुँह न खोल पाता था और पास न जा पाता था । वान्टीयर बहुत थे और सब उनकी आज्ञा में थे। पर, देखता कि वे मेरी तरह चुप रहने की जरूरत में नहीं है । इसीलिए शायद या कृपा श्रौर करुणा के कारण उन्होंने मुझे छाँटा और अपनी सेवा में लिया । उस सेवा की क्या बात बताऊँ ? हुक्म सख्त होते और काम बेतुके । चाकरी का न समय, न उसके कानून । किसी तरह का कोई खत लेकर किसी समय कहीं भेजा जा सकता था । और रात दोपहर बीती हो कि तीन पहर, स्टोव पर चाय तैयार करने को कहा जा सकता था। मेरे पास अपने रुपए रहते थे; कहा जाता, कि जानो चार टिकिट सिनेमा के ले आओ। टिकट ले आता और उनके तीन मित्रों को निमन्त्रित करा: श्राता और सिनेमा तक पहुँचा कर पूछता, कि “अब जाऊँ ?” तो सुनता कि "नहीं, जाना मत । बाहर ही रहना । जाने हमें क्या जरूरत हो ।" सुनकर हम मुस्कराने को हुए कि प्रसाद ने हँस कर कहा, "मैं बेवकूफ़ था न ? जी, में भी जानता हूँ। पर, उस वक्त जानने का मौका था ? इन्टरवल पर कभी वह बाहर आ भी जातीं और मुझे दौड़ा कर यह वह चीज मँगा भेजतीं । नहीं तों मैं पूरे ढाई घण्टे उनके कम की राह देखता बाहर खड़ा रहता । श्रजब दिन थे और वह मुझे कमरे में अपने पलंग के पास ही फर्श पर सोने को कहतीं कि ज़रूरत पर फौरन काम आ सकूं । और में बराबर हर जरूरत पर यानी कि कपड़े साफ हो जाते, जूते चमक जाते और प्याले में चाय पेश हो जाती ।" काम आता रहा । तड़के अँधेरे किंर्च
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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