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________________ ४८ जैनेन्द्र की कहानियाँ [सालवाँ भाग] ___"यह-सब", प्रसाद ने हँस कर कहा, "मैं देश-सेवा के भाव से उछाह से करता था। पर देश कभी लुप्त होता तो सामने लीला मिश्र की मूरत रहती और सेवा उनकी हो रही है, इससे मैं और भी अपने को धन्य अनुभव करता। देश कुछ होगा, पर वह मेरे लिए साक्षात् भारत-माता थीं। उम्र मेरे-जितनी हो तो क्या, थीं तो महान । इतनी कि में उन्हें शिखर पर देखता था और अपने को पाताल में पाता था। ____ "पर महीने भर से अधिक सेवा का पुण्य मुझे नहीं मिल सका क्योंकि फिर पिता आ गए और मां आ गईं और दोनों मुझे मना कर ले गए और फिर मैं वहीं अपने शहर में आकर टूटी पढ़ाई को जोड़ कर इम्तहान पास करने लगा।" प्रसाद ने यहाँ सांस ली, एक लम्बी साँस, और कहा, "फिर तो दुनिया दो हो गईं और ज़माना गुज़र गया। पढ़ाई पूरी हुई। ब्याह हुा । नौकरी से लगा। फिर बच्चे हुए । जिम्मेदारियां बनीं, इज्जत बनी और बचपन का बीता भूल गया। या याद आता तो ताश के तमाशे की तरह ।” __“अब आप क्या समझते है ? यही न कि बीता बीत जाता है ? पर उस रोज़ शहर के गिने-चुने दो-तीन नेता मेरी बैठक में पाए । मैंने अहोभाग्य माना। उन्होंने कहा कि अमुक अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए श्रीमती मिश्र यहाँ पधार रही हैं। उन्होंने लिखा है कि वह आप के यहाँ ठहरेंगी। प्रबन्ध तो सब था और अब भी आप अनुमति दें तो, अनुकूलता हमारी ही व्यवस्था में ठहरने में होती । लेकिन मै सहसा कुछ बोल नहीं सका।" __आगत महानुभावों ने कहा, "सर भटनागर के यहाँ किसी प्रकार का उन्हें कष्ट न होगा।" _मैंने कहा, "जी हाँ। आपकी ही व्यवस्था ठीक रहेगी। फिर मैं शायद उस दिन यहाँ रहूँगा भी नहीं, परसों ही तो अधिवेशन है।"
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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