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________________ रुकिया बुढ़िया १०१ दीना-गांव में घर पर मुझे काम की कमी नहीं थी। और तुम जानती हो, यहाँ दिल्ली में किसके लिए आकर मरा हूँ।" रुक्मिणी चुप । कुछ ठहरकर दीना ने पूछा, "आज क्या बनाया है ?" रुक्मिणी फिर चुप । दीना, "क्यों, बोला नहीं जाता।—या, मैं अच्छा नहीं लगता !" रुक्मिणी चुप रही। और दीना के भीतर आक्रोश उठकर उसे घोंटने लगा। दीना-"मैं चला जाऊँ, तब तुझे चैन पड़े। इतनी रात गये लौटता हूँ, तब भी यह नहीं कि मुह तो खोले, कुछ कहे । --कोई बकता है, तो बकता रहे। मैं जानता हूँ, तू मुझे नहीं चाहती। चाहती है, मैं मर जाऊँ।" रुक्मिणी-"कुछ नहीं बना है।" दीना ने चिल्लाकर कहा, "क्यों कुछ नहीं बना है ?" था नहीं-" दीना ने और जोर से चिल्लाकर कहा, "था नहीं ! क्यों नहीं था ?" रुक्मिणी चुप हो रही। दीना ने बहुत ज़ोर से चिल्लाकर कहा, "सुनती है कि लात से सुनाऊँ ?--कुछ क्यों नहीं था ?" रुक्मिणा को लगा जैसे लात से सुनाया जायगा, तभी उसके लिए अधिक ठीक होगा। वह, सच, खूब पिटना चाहती है इस समय । जी के भीतर असह्य निराशा का उद्धत मुह इसी भाँति कुचलकर कुछ देर नीचा रहे, तो तनिक चैन तो उसे मिले । वह कुछ नहीं बोली। दीना ने फर्श पर पैर पटककर कहा, "तो नहीं सुनेगी तू-ऐं ?" रुक्मिणी चुप बैठी रही।
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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