SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग तो, न कहो, उस घर में रहने वाली विधवा वह चम्पो, सुन्दर न थी। उमर ढल रही थी, और वह लाल पाड़ की धोती पहनती थी। और वह बड़े सलीके से रहना जानती थी। पान खाती थी, और तम्बाकू भी थोड़ा खा लेती थी। और बहुत मीठा बोलती थी, और बड़ी हँसमुख रहने वाली थी, और सब के दुःख-दर्द में शरीक होकर रहती थी।... वह वहाँ रहती थी, जहाँ सब को प्रसन्न रखा जा सकता है, और जहाँ दर्द से दूर, खुद प्रसन्न रहा जा सकता है। और उसकी चितवन ऐसी थी कि बालक-वृद्ध कौन उस पर नहीं रीझ जाय ? __रुक्मिणी, अन्धी न थी। पर उसने सौन्दर्य को अपने सजाकर न रखा । हारती गई, और हार अपनाती गई, पर यह न किया। अपना कुछ भी, अधिकार के साथ संरक्षण कर रखने की बुद्धि, चेष्टा, उसमें नहीं हुई, नहीं जागी। वह अपना सब-कुछ खो देने को तैयार होती जाने लगी। और चुपचाप एक-एक घड़ी काटकर उस दिन को जोहने-सी लगी, जब उससे कह दिया जाय-"निकल यहां से।" __आगे की उसने कोई बात सोची है, सो नहीं। पर बिना सोचे भी मौत आती है। और बिना सोच-विचार किये भी हम जानते हैं, मौत अपने वक्त आ ही जायगी। हमारी तरह दुविधा में रहने वाली मानवी वह नहीं है। दीना एक रात देर से घर आया। घर में कुछ नहीं बना था, और वह कहीं बाहर कुछ खा-पी आया था । सीधा खाट पर आ गया। रुक्मिणी, नीचे फर्श पर बैठी थी । __एक-दो मिनट हो गये, और कोई बोला नहीं। दीना ने कहा, "क्यों, कुछ मुह से बोल नहीं सकती ?" . रुक्मिणी ने कहा, "अाज देर से आये ।" जैसे बात कहने के लिए ही उसने यह कहा। दीना-"हाँ, देर से आया।"-और तुम बैठी मुझे कोस रही हो। रुक्मिणी-"नहीं..."
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy