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________________ १०२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [साता भाग] एकदम खड़े होकर दीना ने उसे झटके से बाँह खींचकर खड़ा कर दिया, “अब भी बोलेगी, या नहीं-हरजाइन ।" रुक्मिणी ने दोनों हाथ जोड़कर कहा, “तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, मुझे आज खूब मार लो। तुम्हारा बड़ा अहसान होगा।" दीना हाथ छोड़ कर अलग खड़ा हो गया। बोला, "तो तू समझती है, मैं मार नहीं सकता,-ऐं ?" और मानो कुछ स्वस्थ होकर कहा, "रुक्मिणी, मैं मार सकता हूं।" दीना की इस स्थिर कठोर, मानो शान्त, ध्वनि ने रुक्मिणी के चित्त में यथार्थ ही भय उत्पन्न कर दिया । वह सकपकी-सी देखने लगी। दीना ने कहा, "रुक्मिणी, मैं मार सकता है।" तभी कुछ रुक्मिणी के भीतर से कठिन होता हुआ उठ कर आया, जिसने उसे एक साथ ही निर्भय कर दिया, और पानी भी कर दिया। वह एकदम दीना के पैरों में अपना सिर गेर कर पड़ गई, बोली, "तुम्हारी हा-हा खाती हूँ, एक बार मुझे खूब मार दो।" दीना तन कर खड़ा रहा । और वह कुछ नहीं कर सकता था। कहा, "रुकमनी !" ___ रुक्मिणी, बिना आंसू, पैरों को ऐसे लिए पड़ी रही, जैसे उनकी खूब लातें खा लेगी, तभी छोड़ेगी। दीना ने हुक्म-भरी आवाज़ में कहा, "रुकमनी !" रुक्मिणी हिली नहीं। दीना ने ज़ोर से अपने पैर को झटका दिया, कहा, "हटो !-मुझे बैठने दो।" __जूते की ठोकर दोनों छाती के संधिस्थल में बहुत कच्ची नहीं बैठी, और रुक्मिणी दूर जा पड़ी। वहीं एक हाथ से छाती दबाये, दूसरा धरती पर टेक, एकटक फ़र्श को देखती हुई वह बैठ रही।
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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