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________________ ऊर्ध्वबाहु उन तपोव्रत ने निराहार यापन किया है । बराबर पंचाग्नि भी तपते रहे हैं। अखण्ड मन्त्रोच्चार के सिवा कोई शब्द मुंह से नहीं निकलने दिया है। श्रमा रात्रि की निबिड़ता में ही आँखों को खोला, नहीं तो सदा बन्द रखा है । हिम, श्रातप, वर्षा और वायु को नग्न शरीर पर सहन किया है । मासों बाहु और मुख ऊपर किये एक पैर पर खड़े रहे हैं । वह बाल ब्रह्मचारी हैं। सोलह वर्ष की अवस्था से उन्हें स्त्री के दर्शनमात्र का त्याग है । आस-पास की भूमि उनके तप के तेज से तृणांकुर-हीन हो गई है, और वृक्षों के पत्ते झुलस उठे हैं। यह सब सुनकर इन्द्र चिन्ताग्रस्त हुए और उन्होंने कामदेव को बुलाया । कहा, “हे कन्दर्प देव, ऐसे संकट में तुम्हीं ने सदा मेरी सहायता की है । धरती पर फिर एक महास्पर्धी मानव तपस्या के बल से हमें स्वर्गच्युत करने का हठ ठान उठा है । वह भूल गया है कि वह शरीर से बद्ध है और मर्त्य है । तुम अनंगरूप हो, कामदेव, और अंगधारी के गर्व-खर्व करने को अतुल बल-संयुत हो । जाकर उस उद्दण्ड ऊर्ध्वबाहु को वश में लो और उसकी तपश्चर्या का दर्प चूर्ण कर दो। इस कार्य में अब विलम्ब न करो, अन्यथा हमारे इस स्वर्ग पर संकट ही आया चाहता है। मानव यदि अपनी अन्तर्वासनाओं को इस प्रकार एकाग्र और केन्द्रित करने में सफल हो जायगा, तो हम देवताओं का अस्तित्व ही व्यर्थ हो जायगा । हे मन्मथ, मनुष्य के मन में नाना प्रकार के मनोरथों को अंकुरित करते रहकर ही हम स्वर्गवासी अपना अस्तित्व निरापद रख पाते हैं। उन मनोरथों से स्वाधीन होकर हीन मनुष्य हमें अपने अधीन कर लेगा। इससे हे विश्वजयी, जाओ और उस तपस्वी के मन में मोह उत्पन्न करके स्वर्ग की रक्षा करो।"
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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