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________________ जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] आज्ञा पाकर कामदेव अपने आयुध और सैन्य-समेत धराधाम पर ऊर्ध्वबाहु के निकटस्थ अवतीर्ण हुए। तब सहसा ही आस-पास की पृथिवी विलसित हो उठी। छहों ऋतुओं का युगपत् समागम हुआ । मन्द-मन्द बयार बह आई । पुष्प-मंजरियों से धीमी-धीमी सुगन्ध फैलने लगी। आकाश भी मानो सुख-स्पर्श कर उठा। सब कुछ जैसे तरंगित होकर झूम उठा हो । ऊर्वबाहु ने सुखयोग की इस आपदा को अनुभव किया और आँखों को और भी कस कर बन्द कर लिया । शेष शरीर को भी मानो समेट कर जड़वत् करने की चेष्टा की। ___उस समय दसों दिशाओं से मदिर मधुर संगीत की मूर्छना उसके कर्ण-रन्ध्रों में प्रवेश करने लगी। शरीर में मानों हठात् पुलक छा जाने लगा । रक्त सनसनाता-सा शिराओं में प्रधावित हुआ और निराहारी शुष्क अंग-प्रत्यंग में जैसे हठात् हरीतिमा भरने लगी। ___ अर्ध्वबाहु समझ गये कि यह इन्द्र का उपसर्ग है। उस समय मन-प्राण में से चेतना खींचकर मस्तिष्क के ऊर्व में केन्द्रित कर रखने की उन्होंने प्रणपूर्ण-भाव से चेष्टा की। बाहरी किसी माया पर वह अपनी आँखें नहीं खोलेंगे, किसी रस का स्पर्श नहीं लेंगे। बहती वायु, भीनी गंध, मधुर स्वर और मादक वाताकाश सब इन्द्रियों का भ्रम है । इन व्यापारों से इन्द्रियों का संगोपन कर अतीन्द्रियता में ही ब्रह्ममग्न रहना होगा । विषयों में इन्द्रियाँ भागती हैं, आत्म-विषय अतः उनका निग्रह ही है। काया को स्खलित और शिथिल किसी भाँति नहीं होने देना होगा। अशेष भाव से ब्रह्मध्यान में ही रहकर काया की बाग को स्थिर सङ्कल्प से थामे रखना होगा।
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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