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________________ २०० जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] समस्त प्रजा को जमा होने दीजिए । वहाँ मैं प्रजा के हाथों में हूँगा। कारागार में मुझे डालने की उसकी माँग होगी तो वह भी मुझे स्वीकार होगी।" राजगुरु इस पर प्रसन्न थे । बोले, "न्याय की वाणी लोकमत की वाणी है । मैं उसी का प्रतिनिधि होकर तुमसे त्यागपत्र माँगता था। कल तो नहीं, पर चार रोज़ में जन-सभा की व्यवस्था होगी। क्यों बलाधिप, चार दिन क्या आवश्यक नहीं हैं ?" युवराज ने कहा, "हम आपस में झगड़ते हैं तो तत्काल हमें जनता के सामने अभियुक्त बनकर आ जाना चाहिए। हम और आप शासक नहीं, सेवक हैं। आपस के झगड़े को गहरा करने के लिए चार रोज़ का सुभीता पाने का हमें हक नहीं है। कल ही सभा निर्णय कर सकती है।" बलाधिप बोले, "मेरे लिए एक दिन में उसकी व्यवस्था शक्य नहीं है" युवराज ने कहा, "सेना और पुलिस को तो उसके सम्बन्ध में कुछ कष्ट नहीं करना है। फिर व्यवस्था की क्या बात है ? समान धरती पर हम सब मिलेंगे।" राजगुरु ने कहा, "वह सम्भव नहीं है। बैठने की ठीक व्यवस्था करनी ही पड़ेगी। शान्ति-रक्षा के लिए सैनिक तैनात होंगे। मन्च और ध्वनि-क्षेपक की आवश्यकता होगी। आपको व्यवस्था सम्बन्धी बातों का परिचय नहीं है । चार रोज आवश्यक ही हैं।" युवराज ने कहा, "चार रोज आपको अपने लिए आवश्यक हो सकते हैं। जनता तो सदा उद्यत है। उसको सीधा नहीं पहुँचेंगे, तो उस तक पहुँच ही नहीं सकेंगे। हमारे लिए इतना काफी है कि अपने आसनों से उतरें और जमीन पर आजाएँ, जहाँ सब चलते
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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