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________________ काल-धर्म २०१ हैं। न मन्च चाहिए न शान्तिरक्षक । शान्तिरक्षक बनकर ही तो हम यहाँ बैठे हैं, हमी खुद अशान्त हैं । जनता अशान्त थोड़ी-बहुत हो तो वह जरूरी ही है । आपकी व्यवस्था के भीतर आकर जनता के लोग अंक बन जाते हैं। मुझे जीवित-जागृत जनता चाहिए । उसके हार्दिक भाव चाहिए । मतों की संख्या कृत्रिम है । आप उसी के लिए न व्यवस्था चाहते हैं ?" ____ इस पर बलाधिप ने गुरु को देखा, गुरु ने बलाधिप को कहा, "कल सभा नहीं होगी।" __युवराज ने कहा, "मैं तो कल तक भी नहीं ठहरने वाला हूँ। अभी जाकर कह दूँगा कि मेरे दो साथियों का मुझ पर विश्वास नहीं है। वे मुझे अपराधी ठहराते हैं। आओ भाइयो, उनसे मेरे अपराध सुनो और मुझसे उनकी सफाई माँगो। अपराधों को ओढ़कर मैं एक रात भी चैन से नहीं सो सकता हूँ।" राजगुरु ने कहा, "वत्स, तुम अनुभवहीन हो। तुम राजा हो, लेकिन तुम्हारे पास नाम का ही बल है। सेना का बल बलाधिप के पास है। तन्त्र का बल मेरे पास है। सुनो, तुम इसी समय हमारे कैदी हो।" ___ युवराज ने हँसकर कहा, "देखने तो दीजिएगा कि क्या सचमुच ऐसा है।" देखा गया तो बाहर सशस्त्र सैनिक घूम रहे थे। राजगुरु ने कहा, “देख लिया ? अब हम कहें वैसा तुम्हें करना उचित है।" युवराज ने हँसकर कहा, "मैं समझता हूँ आपके पास इस समय अस्त्र भी हैं। तो भी मैं बाहर जाना चाहता हूँ" . कहकर युवराज द्वार के बाहर गए ।
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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