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________________ काल-धर्म १६६ तब उसके भाव में सचाई आजायगी। अभी तो दूर इस से विस्मय के कारण अपने राजा का वह आतंक मानती है । तुम एकाएक जनता में मिल जाओगे तब आत्मीय होने की वजह से उसमें तुम्हारे लिए सच्ची श्रद्धा पैदा होने लगेगी । ऐसे तो तुम हमारे शासन के लिए खतरा बन जाओगे। हमें वह मन्जूर नहीं है। या तो वृत्ति पाकर एक रईस की तरह से रहो, नहीं तो तुम्हें कारागार में रहना होगा । साधारण नागरिक बनकर हम तुम्हें नहीं रहने देंगे।" युवराज ने हँसकर कहा, “लोकतन्त्र के प्रतिनिधि होकर आप लोक-सत्ता से भय क्यों खाते हैं ? यदि भय है तो लोकतन्त्रता का दावा भी आपका सही नहीं है । अभी तो मैं ही राजा हूँ। त्यागपत्र देने की इच्छा है तो इसी निमित्त कि साधारण नागरिक बनें। वह सम्भव नहीं है तो आप लोगों का शिकार जनता को मैं नहीं बनने दूँगा । जनता की आँखों में आप इसी दोष को बता-बता कर मेरे विरुद्ध रोष करा सकते हैं कि मैं राजा का पुत्र हूँ और राजसी ठाट-बाट में रहता हूँ। लेकिन आप जानते हैं कि आपके मन में उस ठाठ-बाट की आकांक्षा है, और मैं केवल उसे इसलिए सहता हूँ कि प्रजा के लिए वह अभी असह्य नहीं है । प्रजा का सेवक होकर मैं यदि राजा बनता हूँ तो राजोचित रूप में रहना भी मेरा कर्त्तव्य है। आप लोग मेरे और प्रजा के बीच में इसलिए हैं कि इस कृत्रिम अन्तर को बढ़ाएँ नहीं, बल्कि कम करें । राजा के चारों ओर एक अभिजात-वर्ग उठ खड़ा होता है । वह पीड़ित करता है, तो कभी प्रजा का नाम लेकर राजा को आतंक में रखना चाहता है । अभिजातवर्ग को अब मैं नहीं बढ़ने देना चाहता हूँ। मैं सीधा प्रजा के समक्ष हो जाना चाहता हूँ । कल नगर के बाहर
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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