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________________ १४२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग ] ही उनके मुँह को नोच लिया । इस भाँति कुत्ता उनके प्रेम से अपने को स्वतन्त्र कर वहाँ से भाग गया । उस समय जिनराजदास हाथ-पैर छोड़कर वहीं घास पर लेट रहे । शरीर से जगह-जगह से लहू बह रहा था, पर चित्त में अब भी कुत्ते के लिए प्यार भरा था। अपने क्षत-विक्षत देह की उन्हें कुछ संज्ञा न थी । उन्हें इस समय अपनी मृत्यु में परम तृप्ति मालूम होती थी। अपने से दूर किसी वस्तु के पाने की आवश्यकता इस समय उनमें शेष नहीं रही थी । मानो जो है, वह उनके भीतर भी भरपूर है । ऐसी अवस्था में जब कोई प्रश्न उनके अन्तर को नहीं मथ रहा था, एक प्रकार की कृत कामना उनके समस्त अन्तरङ्ग में परिव्याप्त थी और शरीर से लहू के मिस मानो उनके चित्त से स्नेह ही उमगउमगकर बह रहा था । जिनराजदास ने मृत्यु को अपना श्रालिङ्गन दिया । ठीक, मृत्यु के साथ अपनी भेंट के समय, उस दिव्य अन्तमुहूर्त में उन्होंने पा लिया कि वह साध्य क्या है जिसे पाना है और वह साधना क्या है कि जिस द्वारा पाना है । वे दो नहीं हैं, इस प्रकार परमानन्द के क्षण में वह माँ की उस गोद में जा मिले जो अनन्त प्रतीक्षा में आतुर भाव से सबके लिए फैली है ।
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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