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________________ नीलम देश की राजकन्या वह सात समुन्दर पार जो न नीलम का द्वीप है, वहाँ की कहानी है। वहाँ की राजकन्या को एकाएक किन्नरी-बालाओं का हासकौतुक जाने क्यों फीका लगने लगा है। आमोद के सभी साधन हैं। अनेकानेक स्वर्ग की अप्सराएँ सेवा में रहती हैं, अनेकानेक गन्धर्व-बालाएँ और किन्नरी तरुणियाँ। महल हैं तीन । एक पुखराज का है, दूसरा पन्ने का और तीसरा हीरे का । अप्सराएँ उनमें ऐसे डोलती हैं जैसे फुलवारी और उनसे उज्ज्वल हँसी की फुहार फूटकर पराग-सी चहुँ ओर बिखरी रहती है। और उसके सभी कहीं दुलार और अभ्यर्थना है। पर राजकन्या का जी जाने कैसा रहने लगा है। बड़े-बड़े प्रासादों के आँगनों और कोष्ठों में जा-जाकर राजकन्या अपने को बहलाती फिरती है। पर सब तरुणी संगिनियों के बीच घिरी रहकर भी जाने कैसा उसे सूना लगता है । कहती है, “तुम जाओ। मुझे तो तुमने बहुत आनन्दित कर १४३
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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