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________________ उपसब्धि १४१ जिनराजदास बढ़े ही चले गए। उनके मन में स्नेह था और पछतावा था। कुत्ते ने देखा कि इस आदमी के चेहरे पर गुस्सा नहीं है, वहाँ प्यार है और दया है। जैसे यह उसका अपमान हो । अँझलाकर कुत्ते ने फिर चेतावनी दी, "मेरे दाँत पैने हैं, खबरदार आगे न बढ़ना, अब हम दोस्त नहीं हैं।" जिनराजदास ने कहा, "मुझे माफ करो, भाई ! मैंने तुम्हारा तिरस्कार किया अब ऐसा नहीं करूँगा।" किन्तु तब तक कुत्ते ने अपने दाँत उनकी टाँगों में गाड़ दिये थे। और इतने से सन्तुष्ट न रहकर वह उन टाँगों को पूरी तरह झिंझोड़ देना चाहता था। पैर में उनके लिपटते ही जिनराजदास वहीं बैठ गये और टाँगों की तरफ देख कर कहा, “यह तो तुमने ठीक ही सजा दी। लेकिन भाई" कहने के साथ उनके गले में अपनी बाँह डाल देनी चाही। कुत्ते को तब कुछ सूझ न रहा था । अपने गले की ओर बढ़ती हुई जिनराजदास की वही बाँह उसने मुंह में धर ली और दाँतों को गहरा गाड़ दिया। जिनराजदास ने कहा, "चलो यह भी ठीक है । पर अब आओ, मेरी गोद में तो श्राओ।" यह कहते हुए उन्होंने अपनी दूसरी बाँह को पीछे से डालकर कुत्ते को गोद में ले लेना चाहा। कुत्ते ने उलटकर उसी तरह दूसरी बाँह को भी लहू-लुहान कर दिया। जिनराजदास ने इस पर हँसकर प्यार से अपनी ठोड़ी पीठ पर डालकर कुत्ते को किश्चित् अपनी तरफ लिया। पर कुत्ते ने छूटते
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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