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________________ १३० जैनेन्द्र की कहानियां [तृतीय भाग] यह क्या कर रहे हो ? मैं बहू के दान पर रहूँगी ? यह कोठी भी श्रीवर के नाम क्यों किए दे रहे हो ? जानते नहीं, वह बहू के हाथ में है। तुम्हें हो क्या रहा है, मुझे भी अपने से पराया बना दे रहे हो न ?” जिनराजदास ने गम्भीरता से कहा, "तुम क्या चाहती हो ?" पत्नी बोली, “मुझसे तो बहू की हुकूमत में नहीं रहा जायगा ?" "चाहती क्या हो ?" "तुम्हारे पीछे परवश होकर रहूँ, यह तुम चाहते हो तो वैसी कहो!" "पर अभी तो मैं हूँ।" "हाँ, हो, पर देखती हूँ कि तुम होकर भी नहीं हो, क्या जानती थी कि बुढ़ापे में यह दिन देखूगी।" "धन चाहती हो? "तुम अगर मेरे नहीं रहोगे तो धन बिना मेरे लिए कुछ और क्या रह जायगा ?" सुनकर जिनराजदास कुछ देर चुप रहे, अनन्तर बोले, "देखो शुभे भूल न करना, मैं अब तक स्वार्थ के लिए नहीं रहा, तुम्हें जरूर अपने लिए मानता रहा। इस बारे में मुझे मुफ्त का पुण्य देने की बात कहीं मन में भी मत लाना, नहीं तो वही बोझ मुझे पाताल ले जायगा । सुनो, अब उसी तरह के एक गहरे स्वार्थ की बात दिखाई दी है, जो अब तक नहीं दीखी थी। वह स्वार्थ इतना गहरा है कि उसके बारे में भूल हो सकती है। इसमें तुमको भी मैं अपने लिए नहीं मान सकता । शंका में न पड़ो। जाने का दिन आवेगा तब-लेकिन तब तक तो मैं हूँ ही ।" पति की ऐसी बातें सुनकर पत्नीने रही-सही पास छोड़ दी।
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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