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________________ उपलब्धि १२६ और उसमें सामने दीखने-वाली सिद्धि उनके निकट सब-कुछ रही थी। पर आज समस्त मन-प्राण की भूख के जोर से उनमें एक जिज्ञासा दहक उठी है, जो किसी भी तरह इन्द्रियों से प्राप्त होनेवाले पदार्थ-जगत् से शान्त नहीं हो पाती। उन्हें गम्भीर पीड़ा है । उसमें मानों लौट कर फिर वह शिशु से अबोध होते जा रहे हैं । मिट्टी के खिलौने के लिए जैसे बच्चा रत्नाभरणों को फेंक सकता है, वैसे ही.मन की शान्ति ( जो बहक नहीं तो बताइए क्या है ?) के लिए यह वृद्ध जिनराजदास अपनी सारी धनदौलत फेंकने को तैयार' दीख पड़ते हैं। ऐसे लक्षण देखकर समझदार लोगों ने उनके बेटे श्रीवरदास को जतलाया कि परिवार का भविष्य उनके हाथ है । पिता तो अपना कर्तव्य कर चुके । अब पुत्र को सचेत रहना है। पर पुत्र पहले से सावधान थे और जायदाद उनके नाम हो चुकी थी। यह बात यों हुई थी जिनराजदास ने पुत्र को बुलाकर एक रोज कहा, "श्रीवर, अब सब तुम सम्हालो, मुझे छुट्टी दो ।" श्रीवरदास, "पिता जी आपकी कृपा से में स्वयं समर्थ हूँ। किसी परोपकार में अपनी सम्पत्ति लगाना चाहें तो मेरी ओर की चिन्ता को बाधा न बनने दें।" जिनराजदास, "नहीं भाई, धन से उपकार होता है, यह मेरा विचार अव नहीं रहा ।" श्रीवर, "तो मेरे लिए यह सब क्यों छोड़ जाएँगे? जिनवर, "क्योंकि तुम्हारे निमित्त से सब जुड़ा था। वह तुम्हारा है । देना न देना भी तुम्हारे हाथ है।" उसी समय पुत्र के पीठ पीछे श्रीवर की माँ ने उनसे कहा,
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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