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________________ उपलब्धि १३१ तबसे वह मानने लगी कि श्रीवर के हाथ में ही रुपया- पैसा और मकान - जमीन का इन्तजाम श्री जावे तो अच्छा है । इनका तो उतना भी भरोसा नहीं है । इस भाँति पास और दूर जिनराजदास के लिए सहानुभूति की धारा सूखती जा रही थी। पहले जिनराजदास को पूछने वाले सब थे। लेकिन यह जिनराजदास जो आप ही निरीह होते जा रहे हैं, नाइक जिन्होंने जाने क्या सरदर्द मोल ले लिया है । जिनराज - दास के लिए औरों के मन में एक उदासीन करुणा के सिवाय और हो क्या सकता है ? बात भी सच थी। पहले यह जानते थे कि सब कुछ जानते | अनेक सार्वजनिक संस्थाओं के अध्यक्ष थे । भाषण करते तो अमित आत्म-विश्वास के साथ । वह एक ही साथ धर्म और व्यवहार के मर्मज्ञ माने जाते थे । उनके व्यवहार में एक शालीनता और निःशङ्कता थी, पर अब यह बात बीत गई । अब ज्ञान की जगह उनमें जिज्ञासा है। धर्म के पण्डित होने की बजाय अब वह मुमुक्षु हैं । उनकी प्रगल्भता मौन में शान्त हो गई है। सार्वजनिक सम्मान और प्रतिष्ठा में रस लेने की जगह अब वह एकान्त में प्रायश्चित्त की प्रतारणा से अपना तिरस्कार करने में रस पाते हैं। पहले प्रार्थी, पुस्तकें, पण्डित और पञ्च उन्हें घेरे रहते थे, अब चेष्टापूर्वक निर्जन - शून्य से घिरे रहते हैं । सार्वजनिकता में से उन्होंने अपने को खींच लिया है और जो लोग भूले-भटके पास आ भी जाते हैं, उनके आगे वह सहसा कातर हो आते हैं हम क्या कहें ! कौन जाने यह अवस्था की क्षीणता ही हो । भावुकता का अतिरेक बार्धक्य का कारण हो । प्राण-शक्ति की कमी के कारण ही श्रात्म-विश्वास उनका जाता रहा हो, इसीलिए धार्मि
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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