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________________ ११४ जनेन्द्र की कहानियाँ तृतीय भाग] प्रीति में भर गया है । देखो न, अपने ऊपर पाप का बोझ लेकर भी तुम्हें मैंने अपने पास पकड़ बुलवाया । अब बोलो, अगर मुझ को साथ लेकर चलना चाहते हो तो मैं यहाँ की सब मान-पूजा को छोड़कर आज ही तुम्हारे साथ चल सकता हूँ।" वैरागी ने कहा, "मेरा कोई आश्रय-स्थान नहीं है । क्या ठिकाना है कि मैं कहाँ भटकता फिरूं । प्रभु का नाम ही मेरा सब कुछ है और मेरे पुराने पाप मुझे एक क्षण के लिए भी चैन नहीं लेने देते हैं । इसलिए मैं अपनी बे-ओर-छोर की भटकन में तुम्हें कहाँ साथ रखू ? तुम जानते हो कभी मैं खाना पाता हूँ, कभी नहीं पाता । मुझे कोई कला नहीं पाती । दीन-दुखियों में मेरा गला खुलता है । बड़े लोगों में मेरे मुंह से बोल भी नहीं निकलता है। देखो खुद ही दीन हूँ, दुखी हूँ। तुम खुद ही सोचो कि उन दीन-दुखी लोगों में जाकर मेरे से तुम्हें क्या प्राशा हो सकती है ?" इसी तरह वैरागी अपने सम्बन्ध में हीनता की बातें बहुत देर तक कहता रहा। तब मंगलदास ने कहा, "वैरागी! इसकी चिन्ता न करो। जगत् में सोने की कीमत तुम जानते हो । वह एक मुट्ठी मैं तुम्हें दे दूंगा। उससे फिर तुम्हें कोई कष्ट नहीं होगा।" वैरागी ने आश्चर्य से कहा, "तुम्हारे पास सोना है। तब तुम मेरे साथ क्यों रहते हो ? मेरे साथ तो कुछ भी नहीं है।" __ मंगलदास ने कहा, "मेरे पास सोना है, फिर भी जो मैं तुम्हारे साथ रहने को कहता हूँ, इसका मतलब यही है कि तुम्हारे पास सोने से बड़ी चीज है।" वैरागी ने कहा, "तुम अगर कोई बड़ी चीज मानते हो और उस बड़ी चीज को चाहते हो तो फिर सोने को क्यों अपने पास
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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