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________________ लाल सरोवर ११५ रखे हुए हो ? मुझको नहीं मालूम था कि तुम सोने को पास रखकर चलते हो।" ____ मंगलदास को यह सुनकर बड़ा अचम्भा हुआ । बोला, “ये सोने की मोहरें गाँव-वाले कल सवेरे मेरे पास डाल गए हैं । मैं इनका क्या करूँ ? दुनिया में जो कष्ट होता है वह अधिकतर इस सोने के प्रभाव से होता है । इसलिए कहता हूँ कि मुझको तो कोई कष्ट है नहीं। गाँव-वाले सभी-कुछ मुझे दे जाते हैं । लेकिन तुम पर मुझको दया आती है । तुम एकदम अनजान आदमी हो । क्या तुम समझते हो तुम्हारी किसी महिमा के कारण मैं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ ? नहीं, मैं धर्मात्मा आदमी हूँ। मेरा हृदय कोमल है। तुम पर मुझे दया होती है। तुम एकदम निरीह मालूम होते हो । ईश्वर का आदेश है कि गरीब और असहाय पर दया करनी चाहिए । इसी वजह से मैं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ कि जिससे तुम्हारी बीमारी में मैं तुम्हारे काम आऊँ और मुझे सन्तोष हो कि ईश्वर की आज्ञा के अनुसार मैं तुम जैसे असहाय प्राणी की मदद करता हूँ।" वैरागी यह सुनकर मंगलदास का बड़ा कृतज्ञ हुआ। उसने कहा, "मैं सचमुच बड़ा पापी हूँ । लो तुम जो मेरे साथ हुए तो मैं उसमें अपनी बड़ाई मानने लगा। मैं तुमसे अपने को मन-ही-मन में विशेष गिनता था। लेकिन अब तुमने मेरी आँखें खोल दी हैं। मैं तुम्हारा बड़ा उपकार मानता हूँ। अब मालूम होता है कि तुम सिर्फ दया-भाव से मेरे साथ थे । और यह तुम्हारी मुझ पर कृपा थी । दया की अब भी मैं तुमसे, जगत् से और 'ईश्वर से अपने लिए याचना करता हूँ। लेकिन मेरा तन इस योग्य नहीं है कि इसकी चिन्ता की जाय । जब तक चलता है, चलता है । एक
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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