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________________ लाल सरोवर ११३ लेकिन यह वैरागी तुम लोगों का हिस्सा लेकर भाग गया है। उस को तलाश करना चाहिए ।" 1 यह सुनकर गाँव वाले बड़े उत्साह से उस साधु की खोज करने निकले । आखिर अशर्फियों के निशान से साधु को पा लेने में कठिनाई नहीं हुई। वह एक जगह पेड़ के नीचे जाकर सो गया था । गाँव वाले उसको पकड़कर और बाँघकर मंगलदास के पास ले आये । अब तक मंगलदास अपनी प्रतिष्ठा के बारे में निश्चिन्त हो गया । एकान्त पाकर उसने वैरागी से कहा, "देखो वैरागी, तुम मुझे बग़ैर साथ लिये अगर कहीं जाओगे तो जैसी तुम्हारी दुर्गति होगी ; वह तुम जानते ही हों। मैंने कहा था कि मुझे तुम अपनी सेवा से अलग मत करो। अब तुम देखते हो कि अगर तुम मेरी उपेक्षा करते हो तो मेरी महिमा तुमसे कम नहीं है । देखों, गाँव वाले मुझको पूजते हैं और तुम्हारी इज्जत उनके मन में कुछ भी नहीं ।" वैरागी ने कहा, “मैं अब रोगी नहीं हूँ । कमजोर नहीं हूँ । अपना सब काम कर सकता हूँ । चल-फिर सकता हूँ । तब तुमको अपने साथ रखने का मुझको क्या अधिकार है ? फिर अब तुमको मेरी आवश्यकता भी क्या है । धर्म का अभ्यास तुमको हो ही गया है। मालूम होता है सिद्धि भी तुमको मिल गई है । अब तुम्हारी लोग सेवा करने लगे हैं तो ठीक भी है। तुम्हें अब दूसरे की सेवा करने की चिन्ता क्यों होनी चाहिए ?" मंगलदास ने अपने आसन पर से ही बैठे-बैठे कहा, "नहीं वैरागी, मुझे अपनी इस मान-प्रतिष्ठा में कुछ भी रस नहीं है । ये तो सब जबरदस्ती मुझको देते हैं। मेरा मन कुछ तुम्हारी
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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