SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग] बुलवा लूँगा। तब हम दोनों राजसी ठाठ से रहेंगे!" ___ लौटकर मंगलदास वैरागी के पास पहुँचा तो हाँफ रहा था। उसने कहा, "महाराज, मैं आस-पास गाँव-गाँव घूम कर आया हूँ। लोग बड़े अश्रद्धालु हैं । साधुओं की महिमा नहीं जानते हैं। कहीं से कुछ भी सहायता मैं नहीं पा सका । चलिये । यहाँ से दो कोस पर एक गाँव है । वहाँ तक चले चलिये। वहाँ सब इन्तजाम हो जायगा।" वैरागी ने कहा, "मुझ से अब नहीं चला जायगा। मैं इस पेड़ के नीचे ही रह जाऊँगा । तुम अब भी चाहो तो जा सकते हो।" ___ मंगलदास के मन में था कि आगे के गाँव तक पहुँचते-पहुँचते जाने कितनी अशर्फियाँ और हो जायँगी। लेकिन यह वैरागी पेड़ के नीचे बैठकर आराम से सो गया। ___ मंगलदास तब उठकर गया और गाँव में पहुँच कर वैरागी की बड़ी तारीफ की। बात का हुनर तो उसके पास था ही। थोड़ी देर में गाँव-वालों की सहायता से नहर के किनारे एक झोंपड़ी तैयार हो गई और श्रद्धा से भीगे हुए गाँव के दो-एक आदमी सेवा के लिए उत्सुक होकर वहाँ रहने लगे। वैरागी की तबियत सम्भलती नहीं दीखी । उनको बार-बार के होती थी और दस्त होते थे और वे कुछ खाते-पीते न थे। मंगलदास ने उन साधु की प्रशंसा में जो कुछ कहा था गाँव वालों ने वैसी कुछ भी महिमा इन साधु में नहीं देखी। इसलिए वे एकएक कर उन्हें छोड़ कर चल दिये। __ असल में मंगलदास किसी को साधु के बहुत निकट नहीं आने देना चाहता था । क्योंकि अगर साधु की असली महिमा का भेद
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy