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________________ १०६ लाल सरोवर इज्जत है। सोने के सब हैं-स्त्री है, भाई है, बन्धु है, सगे-सम्बन्धी हैं। वह गाँठ में नहीं है तो कोई भी किसी को नहीं पूछता है। यह सोचकर मंगलदास ने कह दिया, “महाराज, आपके साथ रहकर तो शूल भी मेरे लिए फूल हो जायँगे। मुझे इस जगत् में और किसी की इच्छा नहीं है । सन्त-समागम ही मेरे लिए परम सौभाग्य है।" इतना कहने पर वैरागी उस नगर को छोड़ने को राजी हो गया। दोनों उस नगर से चल दिए । वहाँ से थोड़ी दूर चले होंगे कि साधु की काया बिगड़ने लगी। रास्ते में पानी की एक नहर पड़ती थी। साधु जी उसी नहर के किनारे पर बैठ गए। उन्होंने कहा, "मंगलदास, अब तो मुझ से चला नहीं जाता है। तुम लौट कर जाना चाहो तो अभी जा सकते हो । नहीं तो मेरे लिए यहीं कुछ व्वयस्था करनी होगी। मैं इस शरीर से अब आगे नहीं चल सकता।" ___ मंगलदास वैरागी से जरा पीछे रहकर उनके हरेक क़दम पर जो अशर्फी बनती थी उठाता चला आ रहा था । इसलिए यह सुनकर भी वह वैरागी को अकेला नहीं छोड़ सकता था। उसने बड़ी खुशी के साथ कहा, "महाराज, यहाँ विश्राम कीजिये । मैं सब व्यवस्था किये देता हूँ।" ___ यह कहकर मंगलदास वापिस अपने घर लौट आया और वहाँ स्त्री को अपने साथ की अशर्फियाँ सौंप दी। कहा, "तुम मेरी चिन्ता न करना, जब तक उस बेवकूफ साधु के पास हूँ तब तक समझो कि हर दिन के हिसाब से सैंकड़ों रुपये मैं कमा रहा हूँ। लौटूंगा तो खूब धन भर कर लौटूंगा । समझी ! या नहीं तो यहीं किसी पास के बड़े नगर में हवेली चिनवा लूँगा और तुमको भी वहाँ
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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