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________________ लाल सरोवर १११ किसी को चल जाय तो इसमें मंगलदास को बहुत नुकसान था। इसलिए इस आशा में कि साधु कभी अच्छे होंगे, मंगलदास उनकी सेवा-टहल करने लगा। के होती तो उसको अपने हाथों से साफ करता । इसी तरह और भी सब सेवाएँ करता। दिन-पर-दिन हो गए। साधु क्षीण होकर ठठरी की भाँति रह गया। लेकिन मंगलदास की आशा नहीं सूखी और वह साधु की सेवा से विमुख नहीं हुआ। देखा गया कि वैरागी कमजोर होकर अब बहुत चिड़चिड़े हो गए हैं । जरा-जरा-सी बात पर मंगलदास को वह बहुत सख्तसुस्त कहते हैं। कोई भूल हो जाती है तो बहुत डाटते-डपटते हैं। कहते हैं, "अभी तुम सामने से चले जाओ!" लेकिन मंगलदास सब दुर्वचन नम्रता के साथ स्वीकार करता है । उत्तर कुछ नहीं देता और सेवा में कोई त्रुटि नहीं आने देता। मंगलदास की ऐसी एक-मन सेवा देखकर गाँव वालों पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा और वे साधु को छोड़कर मंगलदास की ही श्रद्धा करने लगे। वे उसकी बड़ी बड़ाई मानते थे और उसको अपनी श्रद्धा का तरह-तरह का उपहार देते थे। ___ जब उसकी अपनी बड़ाई होने लगी तब उसने सोचा कि यह तो नया रास्ता दौलत मिलने का हो रहा है । अव साधु का मैं साथ क्यों पकड़े रहूँ ? यह सोच कर उसने साधु से ' अलग एक अपनी कुटिया बना ली और अधिक काल वहीं रहने लगा । देखते-देखते उसकी प्रशंसा आस-पास चारों तरफ फैल गई और लोग उसके दर्शन को आने लगे। ___ इधर बराबर की झोंपड़ी में वह वैरागी पड़ा ही था । अब भी मंगलदास रात को आकर उसकी शुश्रुषा किया करता था ताकि ऐसा
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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