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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [तृतीय भाग] खिन्न, करुण वाणी में देवी पार्वती ने नारदजी से कहा, "हे मुने, पृथ्वी को मैंने आकांक्षित दान दिया है। आप अब वहाँ जाकर फल देखिए । उस जगतीतल की मानव-जन्तु की जाति को उस फल के स्वाद से निश्शेष होने पर फिर कुछ और कहना हुआ, तो मैं फिर सुनूंगी। किन्तु मुनिवर, मेरी पृथ्वी बड़ी पगली है।" __ ऋषि नारद का हृदय गद्गद हो पाया। वे यन्त्रालय से बाहर श्रा गये और प्रभु शंकर की और माता पार्वती को महामहिमा के गान में इकतारा बजाते हुए बिहार कर गये। रात को पृथ्वीमंडल पर कुछ भूचाल-सा आया। मानों एक साथ पृथ्वी की काया में कहीं से विद्युत् भर गई । मानों कई सदियाँ पल-ही-पल में बीत गई । अत्यन्त वेग से आघूर्णमान चाक जैसे स्थिर दीख पड़ता है वैसे ही वह रात्रि जगत् के प्राणियों को अति स्तब्ध और गतिशून्य मालूम हुई। बस, उस अलौकिक गति की सर्राहट का सन्नाटा ही धरती के जीवों को हठात् बोध हुआ। ___ किन्तु जब सूर्योदय हुआ, तब मनुजों ने देखा कि धरती की जैसे कायापलट हो गई है । फसल जो धरती से फूट रही थी, पकी, सुनहरी, झूमती हुई लहरा रही है । धरती ने मानो अपने कोश में से कबका संचित अन्न इस बार उगल डाला है। लोगों में अत्यंत उत्साह उमड़ पाया, अब उन्होंने पाया कि धन से धरती भरपूर हुई बिछी है और उत्साह में लालसा भी लहकी । धनराज ने उठकर देखा। उसका मन आनन्द से भर गया । साथ ही लोभ भी उसमें भरने लगा।
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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