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________________ नारद का प्रय ८७ जनराज ने पृथ्वी पर यह बिखरी हुई दौलत देखी । उसने मानों स्वर्ग पा लिया । और उसे इच्छा हुई कि वह सब-कुछ बटोर कर रख ले। धनराज ने सोचा कि परमात्मा की नेमत बरसी है । मुझे चाहिए कि मैं जल्दी-जल्दी संग्रह कर लूँ । जनराज को कहीं पता न लगे। जनराज ने सोचा कि जबतक धनराज को चेत हो, क्यों न वह उससे पहले ही अपना घर भर ले । क्योंकि आज तो यह विपुलता है। कल जाने क्या होने वाला हो। धनराज और सब-कुछ भूलकर लपकता हुआ पकी हुई सुनहरी फसल काटने चला । घर से निकला कि उसने देखा जनराज भी दराँत सँभाले बढ़ा चला आ रहा है । दोनों ने आपस में बातें नहीं की । बस दोनों ने रुद्ध, अव्यक्त भीतरी रोष से एक दूसरे को देखा। वहाँ से अपना-मेरा का कीड़ा दोनों के भीतर पैठ गया। इसके बाद धनराज ने अपने झोंपड़े के उत्तर के जनराज वाले कोने में और जनराज ने उसी झोंपड़े के दक्षिण के धनराज वाले कोने में एक ही रात को किस प्रकार आग लगा कर अपने संयुक्त प्रेम को स्वाहा कर दिया, यह पुरानी कहानी है। राह-राह में और नगर-नगर में इस कहानी की मुहुमुहुः पुनरावृत्तियाँ देखते हुए मुनि नारद अपने इकतारे की झंकार के साथ महाप्रभु शंकर और महामाता गौरी की महामहिम माया का स्तवगान करते हुए पृथ्वी के चारों ओर परिभ्रमण करते रहे।
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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