SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नारद का प्रध्यं नारदजी ने कहा, "वह त्वरा चाहती है, माता। जब बैठी है तो उठना चाहती है । उठ खड़ी है, तो चलना चाहती है । चल रही है, तव भागना चाहती है । भागती हो, तो उड़ना चाहती है । माता पार्वती, वह 'कुछ और' चाहती है-कुछ और, कुछ आगे, कुछ अप्राप्त, कुछ निषिद्ध ।" पार्वतीजी की खुली आँखें मानों निनिमेष हो गई । आँखों में से धीरे-धीरे बनकर एक-एक मोती दुल पड़ा । उन्होंने कहा, "मुनिवर, मेरी पृथ्वी क्या पगली हुई है ? अरे, वह क्यों पगली होगई है । भगवान की मंगलमय इच्छा में मेरी पृथ्वी विकार क्यों लाना चाहती है, मुने ?" नारदजी ने पूछा, "माते, आपने अभी सुनकर क्या सूचना प्राप्त की है, क्या यह मैं जान सकता हूँ ? पार्वतीजी ने कहा, "ऋपिश्रेष्ठ, पृथ्वी अन्तर्चक्र में चल तो रही ही है । न चले, इसमें उसका वश नहीं है । किन्तु चलते-चलते वह चूं-धूं कर रही है । यही मैंने अभी सुना । चूं-धूं करके वह क्यों रोती है, जब कि इसी नियोजित चाल में उसकी मुक्ति है ?...किन्तु आप कहते हैं, मेरे ही उत्तम-अंग-रूप वे बेचारे मानव-जीव आकांक्षी हैं। तो मने, अच्छी बात है-निःकांक्ष्य यदि मनुज नहीं हो पाता तो उस बेचारे की आकांक्षा को मैं विमुखता न दूंगी।" ___ यह कहकर पार्वतीजी ने अपने आपादलम्बित सस्निग्ध केशों की एक मुक्तक लट को वाम हाथ से थाम आगे किया और दक्षिण कर की उँगलियों की चुटकी से उस लट को निचोड़ते हुए कालकूट अमृत की एक बूंद को पृथ्वी की धुरी में चुना दिया। उस बूंद को पृथ्वी देखते-देखते पी गई । माता पार्वती ने फिर झुककर कान लगाकर सुना । अनन्तर मुख को ऊपर उठाकर, कुछ प्रसन्न, कुछ
SR No.010356
Book TitleJainendra Kahani 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy