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________________ १४ जैनेन्द्र को कहानियां [द्वितीय भाग] मुँह पोंछा और बिना एक शब्द बोले छोटी-सी मेज के पास पड़ी कुर्सी पर ऐसे पान बैठा जैसे कुछ हुआ न हो। माँ के लिये कुछ न रहा । बालक पर फूटती तो कैसे ? अपने को ही झिंझोड़ती तो कैसे ? इससे झीखती हुई वह वहाँ से अलग चली गई और जाकर काया को एक-दम काम में झोंक दिया । वेग से वह काम में जुट गई। उसके पास एक यही उपाय है : काम, काम, काम । ऐसे अपने मन का पता लेने की उसे जरूरत नहीं, मानो बाहर सब सुन्न हो आता है और वह खुद काम में फंस कर शान्त बनी रहती है। __काम के बीच में उसने सुना धनंजय कह रहा है, "मैं जा रहा हूँ-" सुनकर माँ की हठीली शान्ति में एकाएक आग लग गई। दहाड़ कर बोली, "नहीं।" पर बालक मानो बहरा हो, उसने सुना ही न हो । वह द्वार की ओर बढ़ा । तभी बिजली की तेजी से माँ ने लपक कर उसे बाँह से पकड़ा। कहा, “जाता कहाँ है । श्रा, आज तेरी हड्डी पसली ही तोड़ कर रख दूं।" ___ बालक ने प्रतिरोध नहीं किया। माँ ने भी मारा नहीं, खींचते हुए उसे अन्दर ले जाकर खाट पर पटक दिया, और कहा, "मुझे तूने क्या समझ रक्खा है ? मैं घर की कहारन हूँ। एक बार जब कह दिया कि बाहर नहीं जाना है तो तुझे हिम्मत कैसे हुई उठने की।" खाट पर स्वस्थ भाव से नीचे लटके पैरों को हिलाते हुए बालक ने कहा, "मुझे काम है।" "काम है।" माँ ने कहा, "बताऊँ, अभी तुमे काम ?"
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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