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________________ इनाम १५ लेकिन अपनी धमकी से माँ को सन्तोष न हुआ । कारण, वालक सामने पूरी तरह स्वस्थ और सौम्य मालूम होता था । उस की देह को रोष का आवेग प्रचंड रूप से झकझोर गया । विस्मय यही था कि वह खड़ी कैसे रह सकी। बालक किंचिद मुस्करा कर शान्त भाव से बोला, "अव्वल आने की सब को मिठाई देनी है। पिता जी ने कहा था-" ___"पिता जी ने कहा था । आये बड़े पिता जी ! मिठाई खिलाएँगे, घर वालों को पहिले रोटी तो खिला लें ! यों बस लुटाना आता है ! नहीं, कोई नहीं । बैठ यहीं कोने में और अपना काम देख ।" बालक चुपचाप पैर लटकाये बैठा माँ को देखता रहा, बोला नहीं । माँ क्षण भर उसे देखती रही । वह अपने को समझ न पा रही थी। इस लड़के पर उसे गर्व था। यह दुनिया में उसी का बेटा है । उस का अपना बेटा है । अव्वल आया है । आयेगा क्यों नहीं, मेरा जो बेटा है । बोली, “खबरदार जो हिला । टाँग तोड़ कर रख दूँगी, जो कुछ समझता हो ।” कहकर वह कमरे से बाहर होने को मुड़ी, कि डग बढ़ता-बढ़ता रुका रह गया । एक बिजलीसी भीतर कौंध गई । वह ठिठकी । उसकी आँखें फैली, पूछा, "सच बता, वहीं जा रहा था ?" बालक जैसे प्रश्न को समझ न सका, वह विस्मय में चुप रह गया। बोली, "सब समझती हूँ, वहीं जा रहा होगा । केह गये होंगे चुपके से कि""आने दो अब की उन्हें ।" बालक चुप रहा। माँ ने कहा, "बोलता क्यों नहीं है ? वहीं न मिठाई पहुंचाने जा रहा था ?"
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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