SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इनाम १३ कुल दस वर्ष की अवस्था में आठवें में चढ़ जाना - इस ब कारगुजारी की बहादुरी और खुशी उसमें लुप्त होगई । उसे अजबसा लग आया । उसे अपने बाप के प्रति सहानुभूति हुई । उसके मन में चित्र उठ आया कि कैसे जल्दी में कोट डाल कर छतरी लेकर त्रि से पिता जी दफ्तर के लिये चल पड़े होंगे। वह खाता रहा और अपने पिता को जाते हुए देखता रहा । सहसा उस सूने में से उसके पिता जी मिट गये, और उस जगह पर माता जी श्र गई । बोली, "और लेगा ?" "नहीं ।" "तो अच्छा, बैठ के अब पढ़ | बाहर आना-जाना नहीं कहीं, जो ऊधम मचाने निकल जाये ।" बालक ने सुन लिया और एक क्षरण को माँ की ओर देखता रहा | फिर आँखें नीचे कीं, कर्त्तव्यपूर्वक खाने के बर्तनों को सामने से उठाया और उन्हें यथास्थान रखने को बढ़ा । माँ देखती रही । यह लड़का उसकी समझ से बाहर हुआ जा रहा है । कभी लड़के जैसा रहता ही नहीं, मानो एक दम सयाना बुजुर्ग हो । तब वह डर आती है, जैसे अपने पर पछतावा हो । और उस समय उस बुजुर्ग से बात छेड़ने का कोई उपाय भी नहीं रह जाता । उसमें सहसा मातृ-भावना उमड़ती है । पर उसे प्रकाशन का कोई अव - काश नहीं मिल पाता । परिणामतः उठी सहानुभूति रोष बन श्राती है। 1 माँ एकाएक बोली “क्यों, मेरे हाथ टूट गये हैं क्या, कि लाडले साहब बर्तन उठा कर चले ! सुन ले, यह मेरे यहाँ नहीं चलेगा । ये नखरे दिखाना अपने बाप को !" बालक, धीर—गम्भीर, अपने बर्तन रख कर लौटा, तौलिये से
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy