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________________ २०० जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] चारों ओर राज्य के काम हैं, जिन सबका वही अधिनायक है । इन सब में अपने को दान करने से वह चूका नहीं है । कर्मठ शासक है, वत्सल प्रतिपालक, प्रेमी पति । सद्यः वह पिता भी हुश्रा है, और बड़ा स्नेही पिता है। किन्तु सात-समन्दर पार नीलम देश की वह राजकन्या क्या प्रतीक्षा में अकेली नहीं है ? बीच में समन्दर सात हैं, क्या इसी से वह अकेली रहेगी? क्या इसी से राजकुमार प्रतापी होने से रह जायगा ? क्या समन्दरों के इस ओर ही वह भरमा रहेगा ? अरे कौन है वह राजकुमार जो सातों समन्दरों के ऊपर से पार होकर आने वाली नीलम देश की अनूढ़ा राजकन्या की प्रतीक्षा की मूक वाणी को सुनेगा ? सुनेगा, और चल पड़ेगा लाँघने वह सातों समन्दरों को ? अरे, वह प्रतापी राजकुमार कौन है ? क्या वह अभी जन्मा है ? राजनिष्ठ राजेश्वर के मन में अहर्निशि उठता रहता है-"वह कौन है ? वह कौन है ? क्या वह अभी नहीं जन्मा है ?” अपने राज-काज, राज-वैभव और राजरानियों के बीच में भी उसमें उठता रहता है-"वह कौन है ? कह कौन है ?" वह मानों स्वप्न में सबकुछ करता है, जैसे परदेश में हो, किसी मायापुरी में हो। पूछता रहता है-"क्या वह प्रतापी राजकुमार अभी नहीं जन्मा है ?" अरे, समन्दर क्या अनुल्लंघनीय ही रहेंगे और नीलम की वह राजकन्या अनूढ़ा ? और क्या प्रतापी राजकुमार यहाँ ही भरमा रहेगा ? अरे जब कि समन्दर गरज रहे हैं, और उनके पार राजकन्या अपने प्रतापी वीर की राह देख रही है, तब क्या वह यहीं सफेद दीवारों से घिरे महल, नियमों से घिरे राज्य, विलास से घिरे जीवन और ममता से घिरे पुत्र-कलत्रों में ही घिरा रहेगा ?
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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