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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] इस प्रकार सब अव्यवस्था मिटा-मिटू कर विनोद ने घर को व्यवस्था और अनुशासन के मार्ग पर डाल दिया है। विनोद शासन करना नहीं जानता, बस विनोद-ही-विनोद जानता है । कहता है, “घर शासन-शून्य हो तो एक रोज होते-होते विश्व शासन-शून्य हो जायगा और यही मोक्ष है । शासन की जगह वहाँ होती है, जहाँ प्रेम को जगह नहीं । और जब किसी में इतना प्रेम नहीं जो घर में फैला रह सके, तो वह आदमी कैसा !" सुनयना से उसने कई बार कहा है, "देखो, पैसे से और सामान से लोग घर को क्यों भरते हैं ? इसलिए कि वह घर आनन्द से भरा रहे । असली चीज यह है । लेकिन लोग हैं बेवकूफ, असली चीज भी कहीं बाजार में मिलती है ? वह कभी पैसों के भाव आती नहीं । लेकिन हम-तुम नहीं बनेंगे बेवकूफ । क्यों, है न ? जान-बूझ कर क्यों, बनें बेवकूफ ? पैसा रहे रहे, न रहे न रहे, सामान भी चाहे न रहे, यहाँ तक कि रोटी की भी चाहे कभी पड़ने लग जाय, पर घर हमारा सदा चुहल से भरा रहेगा । बस, यही बात है।" सुनयना जानती थी पैसे की कमी की आशंका के लिए सुदूर-- भविष्य में भी स्थान नहीं है। इसलिए उत्तर में कह देती-'हाँ।' बात तो उसकी कुछ विशेष समझ में नहीं आती थी। पर पति की बात के जवाब में हाँ कहने में उसे सुख मिलता था, क्योंकि पति उसकी बात के जवाब में 'हाँ' कहने को सदा उद्यत रहता था। बस इस खुशी के सिद्धान्त के अतिरिक्त और उसका कोई सिद्धान्त नहीं था । और कोई धर्म नहीं था। और इस खुशी को चरितार्थ, सजीव और सम्पूर्ण करने के लिए उतर आया था यह मंगलमूर्ति प्रद्युम्न ! विनोद ने समझ
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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