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________________ ११६ लिया, मेरे जीवन - सिद्धान्त के समर्थन के प्रमाण स्वरूप ही परमात्मा ने इसे भेजा है, हमारा घर अब स्वर्ग बनेगा । पालने के पास श्रा कर शिशु को देखने लगे । वह निश्चेष्ट सो रहा था । तमाशा देखते-देखते यकायक उसके ओंठ फैले। यह क्या, क्या हँसेगा ? – अरे, यह तो हँस रहा है ! वाह ! सोते बालक का यह मुस्कराना देख बड़ा कुतूहल हुआ, बड़ा विस्मय हुआ । विनोद इस अचरज की बात पर मतिभ्रष्ट होकर बड़े चकराये आर बड़े श्रानन्दित हुए । कोई मीठा सपना दखा दीखता है । वाह भई, खूब हँसे । ... इतने में ही फिर बच्चा मुस्कराया । अबके मुस्कान देर तक मुँह पर रही । विनोद ने कहा, "अरे, श्राना तो । देखो-देखो, क्या तमाशा हो रहा है ?" विनोद का इस मामले में कौन भरोसा करे । सुनयना तो फिजूल चौके से उठकर नहीं जाती ! वह बोली भी नहीं, चुप रही । विनोद ने लेकिन चिल्लाया, “जल्दी आ, जल्दी | बिल्कुल फ़ौरन ।” सुनयना ने देखा, पीछा नहीं छूटेगा । बोली, “क्यों चिल्ला रहे हो ? यहाँ आओ, रोटी हो गई है । छोड़ो उसे, सोने दो ।" विनोद का ध्यान बालक में है। उसने सुनयना की बात जैसी नहीं सुनी। बोला, "अरे जल्दी आ । झटपट, तुझे मेरी कसम ।” सुनयना ने समझ लिया, धुन चढ़ी है तो छुट्टी मिलना आसान नहीं है। अब वह उठकर चली जायगी । बोली, "मुझे नहीं लगते यह खेल अच्छे | काम में लगी हूँ, नहीं आती। कैसे आऊँ ?”
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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