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________________ जनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] डोंगियों को मानों शर्त बाँधकर सरपट दौड़ा रहे थे। कहीं किनारे पर कुछ साहब अपनी बन्सी पानी में डाले सधैर्य, एकाग्र, एकस्थ, एकनिष्ठ मछली-चिन्तन कर रहे थे। पीछे पोलो-लॉन में बच्चे किलकारियाँ मारते हुए हॉकी खेल रहे थे। शोर, मार-पीट गाली-गलौज भी जैसे खेल का ही अंश था। इस तमाम खेल को उतने क्षणों का उद्देश्य बना वे बालक अपना सारा मन, सारी देह, समग्र बल और समूची विद्या लगाकर मानों खत्म कर देना चाहते थे। उन्हें आगे की चिन्ता न थी, बीते का ख्याल न था । वे शुद्ध तत्काल के प्राणी थे। वे शब्द की सम्पूर्ण सचाई के साथ जीवित थे। सड़क पर से नर-नारियों का अविरत प्रवाह आ रहा था और जा रहा था। उसका न ओर था न छोर । यह प्रवाह कहाँ जा रहा था और कहाँ से आ रहा था, कौन बता सकता है ? सब उम्र के सब तरह के लोग उसमें थे । मानों मनुष्यता के नमूनों का बाजार, सज कर, सामने से इठलाता निकला चला जा रहा हो। ____ अधिकार-गर्व में तने अँग्रेज़ उसमें थे, और चिथड़ों से सजे, घोड़ों की बाग थामे वे पहाड़ी उसमें थे, जिन्होंने अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान को कुचल कर शून्य बना लिया है, और जो बड़ी तत्परता से दुम हिलाना सीख गये हैं। __ भागते, खेलते, हँसते, शरारत करते. लाल-लाल अँग्रेज बच्चे थे और पीली-पीली आँखें फाड़े पिता की उँगली .पकड़ कर चलते हुए अपने हिन्दुस्तानी नौनिहाल भी थे। अंग्रेज पिता थे जो अपने बच्चों के साथ भाग रहे थे, हँस रहे थे और खेल रहे थे। उधर भारतीय पितृदेव भी थे, जो बुजुर्गी
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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