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________________ अपना अपना भाग्य बहुत कुछ निरुद्देश्य घूम चुकने पर हम सड़क के किनारे की बेंच पर बैठ गये। नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी। रुई के रेशे-से, भाप से बादल हमारे सिरों को छू-छू कर बेरोक घूम रहे थे। हलके प्रकाश और अंधियारी से रँग कर कभी वे नीले दीखते, कभी सफेद और फिर जरा देर में अरुण पड़ जाते । वे जैसे हमारे साथ खेलना चाह रहे थे। पीछे हमारे पोलो वाला मैदान फैला था। सामने अंग्रेजों का एक प्रमोद-गृह था जहाँ सुहावना-रसीला बाजा बज रहा था और पार्श्व में था वही सुरम्य अनुपम नैनीताल । ताल में किश्तियाँ अपने सफेद पाल उड़ाती हुई एक-दो अंग्रेज यात्रियों को लेकर, इधर से उधर खेल रही थीं और कहीं कुछ अँग्रेज एक-एक देवी सामने प्रतिस्थापित कर, अपनी सुई-सी शक्ल की ६६
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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