SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपना-अपना भाग्य १०१ को अपने चारों तरफ लपेटे धन-सम्पन्नता के लक्षणों का प्रदर्शन करते हुए चल रहे थे। अँग्रेज़ रमणियाँ थीं, जो धीरे नहीं चलती थीं, तेज चलती थीं। उन्हें न चलने में थकावट आती थी, न हँसने में लाज आती थी। कसरत के नाम पर भी बैठ सकती थीं, और घोड़े के साथही-साथ, जरा जो होते ही, किसी हिन्दुस्तानी पर भी कोड़े फटकार सकती थीं। वह दो-दो, तीन-तीन, चार-चार की टोलियों में निश्शंक, निरापद, इस प्रवाह में मानों अपने स्थान को जानती हुई, सड़क पर से चली जा रही थीं। उधर हमारी भारत की कुललक्ष्मियाँ, सड़क के बिल्कुल किनारे-किनारे, दामन बचातीं और सम्हालती हुई, साड़ी की कई तहों में सिमट-सिमट कर, लोक-लाज, स्त्रीत्व और भारतीय गरिमा के आदर्श को अपने परिवेष्टनों में छिपाकर, सहमी-सहमी धरती में आँख गाड़े, कदम-कदम बढ़ रही थीं। इसके साथ ही भारतीयता का एक और नमूना था। अपने कालेपन को खुरच-खुरच कर बहा देने की इच्छा करने वाले अंग्रेजीदाँ पुरुषोत्तम भी थे, जो नेटिव को देखकर मुँह फेर लेते थे और अँग्रेज़ को देखकर आँखें बिछा देते थे, और दुम हिलाने लगते थे। वैसे वह अकड़ कर चलते थे,-मानों भारत-भूमि को इसी अकड़ के साथ कुचल-कुचल कर चलने का उन्हें अधिकार मिला है। घण्टे के घण्टे सरक गये, अँधकार गाढ़ा हो गया। बादल सफेद होकर जम गये। मनुष्यों का वह ताँता एक-एक कर क्षीण हो गया । अब इक्का-दुक्का आदमी सड़क पर छतरी लगाकर निकल
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy