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________________ २६ जनन्द्र का जीवन दर्शन भे विचारो की झलक स्पष्टत दृष्टिगत होती हे । ' जनेन्द्र ने ग्रह विसजन के द्वारा जीवन के प्रति उपेक्षरणीय विषय पर विशेषरूप से प्रकाश डाला है। री-पुरुष के परस्पर श्रकपरण 7 भूत उनकी प्रात्म - विराजन की भावना ही विद्यमान है ।नेन्द्र वामपन्यासकार है, जिन्होने स्त्री-पुरुष के प्राकृतिक सम्बन्ध पर विशद विवेचन किया है। सामान्यत हम नर-नारी को पति-पत्नी, भाई-बहन, माता-पिता यादि सम्बन्धा के सन्दर्भ में ही पहचानते है किन्तु उनके मूल मे जो निर्गुणना नियक्तिक सत्य छिपा हुआ है, उसे नने का प्रयास नही करते । जनेन सो का उसकी निक्तिकता प्रोर गुणहीनता मे ही समझने की नेष्टा की है । सम्भवत जैनेन्द्र ने निर्गुण रूप स्वीकार करते हुए भी जिन विभिन्न सम्बन्ना को स्वीकृति प्रदान की है, वह उसके रूप को सहज ग्रात्य तथा सुगम नाने के हेतु हो किया है । जिस प्रकार निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार करिता नीरम माग है। बिना इन्द्रियगोचर हुए ईश्वर का स्वरूप समभना प्रोर उसको भक्ति प्राप्त करना दुर्लभ है । सगुण रूप के द्वारा ही भावना का सतोप प्राप्त होता है । उसी प्रकार नेन्द्र जी ने श्री ओर पुरुष " नियतिक रूप की स्पष्टता का दूर करने के लिए उन्हें विभिन्न सामाजिक एवं पारि बारिक सम्बन्धो में प्रस्तुत किया। सुनीता मे जेनेन्द्र की यह मानता स्पष्टत परिक्षित होतो हे | किन्तु उनके विचारा की मोतिकता गोर नवावी पुरुष का उनके प्रकृति रूप से स्वीकार करने में ही है । उता अनुसार फुदन्व परिवार पीठ खाते हैं, नाते-रिश्ते, नाम-गोत सत्र पोछ प्रात । जा सुनीता ह सुनीता ही है, और हरिप्रसन्न हरिप्रगन्न है । पर यह भी वही सुगना १ 'कभी यह न कहना मेने समस्त सत्य पा लिया है, बल्कि गर्न एक सत्य पाया है ।' -सतीव मित्रान - दि पोफेट' (हिन्दी अनु० 'जीवन-दर्शन', सत्यकाम विद्यालकार ), संशोधित संस्करण, १६५८, राजपाल एण्ड सस, दिल्ली, प०स०५८ । 'तुम शायद स्त्री के होने को इसी तरह जानते हो, जैसे प्रदाय के होने को। स्त्रीका 'स्त्री' सज्ञा देकर पुरुष को न छुटकारा के न होगा । उसे कुछ न कुछ और भी कहना होगा। माता कहो, बहिन कही, उपपत्नी कहो, प्रेमिका को कुछ न कुछ अपनापन जतलाए बिना स्त्री' मज्ञा का 7 प्रयोग करके उस नीन्द्रव्यम छुट्टी तुमको नही मिलगी ।' -जैनेन्द्रकुमार, 'सुनीता', दिल्ली, १६६४, १०१५ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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