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________________ जेनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका २५ भावना अर्ध नारीश्वर के रूप मे अभिव्यक्त हुई है। 'फासी', 'एकरस' 'रानी महामाया' (पान वाला), 'दिन, रात, सवेरा' मे सी-पुरुप का एकाकीपन उन्हे निक्षित कर देता है। वे अपने जीवन की व्यस्तता मे भी मन की प्यास बुझाने का मार्ग ढढते रहते है। उनके कार्ग-त्यापार मे स्पष्टत इस पोर सकेत नही मिलता, किन्तु उनके अन्तस् मे व्याप्त अभाव तथा शुन्गता उन्हें अनजाने ही अपने गन्तव्य की अोर उन्मुख करती है । दूसरी ओर सामाजिक सन्दर्भ मे उनके पात्र अपने जीवन मे बिर से अधिक कष्ट सहकर समाज की मगलाकाक्षा मे रत रहते हैं। 'त्यागप:' की मृणाल तथा 'कल्याणी' मे कल्याणी पीडा को सहकर ही स्वय को समान के प्रति समर्पित करती है। यद्यपि जैनेन्द्र ने आत्मोत्सर्ग को जीवन का समाः लक्ष्य गाना है, किन्तु उनके पात्रो के स्वाभिमान को कोई ठेस नही पहचती। अभिमान पयवा महत्ता और स्वाभिमान मे अन्तर है। जैनन्द्र के पान पीडा को सहते है, किन्तु अपने व्यक्तित्व पर पाच नही पाने देते । 'वह रानी' कहानी में यह रानी दुर्भाग्य के थपेड खाती हुई कहा से कहा पहा जाती है, किन्तु अपमानित होकर अपने प्रेमी की सहानुभूति नही ग्रहण कर गाती । 'नागपन' की मृणाल भी कम स्वाभिमानी नही है। वह जज की बुना होने के कारण सुरुष रो जीवन व्यतीत कर सकती थी, किन्तु वह समाज की दृष्टि मे काटा बनकर अपने प्रात्माभिमान को खण्ति नही करना चाहती । नेन्द्रजी ने जीवन मे ज्ञान और श्रद्धा अथवा बुद्धि प्रौर भावना के ... २६ सामन्जस्य स्थापित करने लिए अह विसर्जन को अनिवार्य माना है। जान अथवा बुद्धि प्रह की प्रतीक है। उसमे व्यक्ति का आग्रह निहित हता हे. किन्तु आग्रह में सत्य का बोध नही हो सकता। ईश्वर के पस्तिता न हो। के लिए तर्काश्रित बुद्धि से परे हृदयगत श्रद्धा की यावश्यकता है। जब तक व्यक्ति का 'ग' प्रबल रहता है, तब तक वह ईश्वर के ममा समर्पित नहीं हो सकता। भक्ति-भावना इसीलिए आत्म-निवेदन प्रधान हाती है। नरत्त जैनेन्द्र की प्रारितकता के मूल में भी अह विसर्जन की भावना ही समाथी अनेन्द्र के पालो की जिज्ञासु प्रवृत्ति भी उनकी निरहकारिता की प्रा' इगित करती है। वे सदैव स्वय को अपूर्ण तथा अतृप्त पाते है। उनगे यह चुगोती नही होती कि उन्होने सत्य को जान लिया है, वरन् वे यही समझते है कि उनके समक्ष सत्य' अश रूप मे ही व्यक्त हुआ है। वस्तुत पोनेन्जी जीवन पोर साहित्य मे अपनी निरहकारिता मे निरन्तर पारितकता की ओर उन्मुख होते रहे है। जैनेन्द्र की निरहकारिता पर मत खलील जिब्रान ने
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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