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________________ जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका चाहिए की सुनीता नाम के संग्रहीत लालित्य के भीतर वह भाव और प्रकृति स्त्री है, उमी भाति दूसरा भी अपने नाम की अमिधा प्रोढकर बस परुप है।" सृष्टि के प्रारम्भ मे भी स्त्री-पुरुष नाम और व्यक्तित्वहीन थे। वे दोनो शारीरिक तथा भावात्मक दृष्टि से स्वय में अपूर्ण है। स्त्री कोमा गरगो वा प्रतीक है, पुरुष कठोरता का प्रतीक है। स्त्रीत्व मे मातृत्व की लालसा हे, पुरुष अपने दान में उसे सन्तुष्ट करता है। जैनेन्द्र की अधिकाश कहानियो के नारी पात्रो मे मातृत्व की उत्कट अभिलाषा है। मातृत्व के पूर्व की स्थिति काम पार भोग की है। जैनेन्द्र काम को 'पाप' नही समभते । जेनेन्द्र के पूर्ववर्ती लेखक स्त्री की रोम-रोम मे समायी इस मातृत्व की प्राकादा की उपेक्षा करते रहे। उन्होने सत्यता का निपेध करते हुए उसे अश्लीलता का पोषक बताया, किन्तु जैनेन्द्र जीवन के मूल सत्य के प्रस्तुतीकरण में अनैतिकता तथा अश्लीलता के दशन नहीं करते । काम और भोग मे सृष्टि की कामना निहित है, तो वह कैमे उपेक्षणीय हो सकता है। जैनेन्द्र के पुरुप-पान अपने अह को विगलित करने के लिए स्त्री के प्रति प्रार्थी रहे है । अतएव मभोग मे व्यक्ति की महता की हार हे । सम्पूर्ण समर्पण मे भगवत्-भाव निहित होता है । जैनेन्द्र के अनुसार पूर्ण समर्पण एकमात्र ईश्वर के प्रति ही सम्भव हो सकता है। प्रत स्त्री-पुगए के मम्मिलन-भाव को भूलकर अद्वैत अथवा अवता की प्राप्ति द्वारा ही काम मे मोक्ष तथा भोग मे योग की कल्पना की जा सकती है । वस्तृत जेनेन्द्र फायट के मत के समर्थक नही प्रतीत होते । उन्होने स्वय स्वीकार किया है कि 'सब के मूल मे फ्रायड बाले काम को नास्तिक लोफर में कैसे मान सकूगा ?'' मूल सब कर्तृत्व मे, मे उस परम तत्व को मानता ह, जिसके लिए हमारे पास ईश्वर जैसे शब्द है। भगवत्ता तथा प्रात्म-समर्पण की भावना से सम्बन्धित होकर ही वे काम, प्रेम, भोग प्रादि प्रकृत भावो को नि सकोच रूप मे व्यक्त कर सके है । छिपाव तथा दुराव मे ही मन का पाप छिपा रहता है, जहा छिपाव अथवा बचाव के लिए कुछ भी शेप नही रह जाता, वहा पाप अथवा अनेतिकता की सम्भावना ही नही उठती वह सहज और स्वाभाविक रूप में ही अभिव्यक्त हो जाते है । नग्नता मे जो कामोद्रेग की क्षमता है, वह स्त्री की सहजता से उद्भूत न होकर उसकी प्रदर्शन १ जैनेन्द्र कुमार सुनीता, दिल्ली १९६४, पृ० १३६ । २. जैनेन्द्र कुमार काम, प्रेम और परिवार', १९६१, दिल्ली, पृ० १२२ । ३ जैनेन्द्र कुमार काम प्रेम और परिवार', द्वितीय सरकरण, दिली, १६६१, पृ० १२४ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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