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________________ जैनेन्द्र का जीवन-दशन गहन्ता श्रोन्मुग हुए बिना व्यक्ति मे पहम्मन्यता की पोषक सिद्द होती है । ऐसी स्पिति द्वन्द्वात्मक होती है। प्रत्येक के ग्रह के मध्य द्वन्द्व की सम्भावना उत्पन्न हो जाती है, किन्तु भगवत्त की ओर उन्मुख होने से पहन्ता का द्वन्द्व समाप्त हो जाता है। जन-7 ने भाव का जीवन के विविध परिप्रेक्ष्य मे विविध यो रो व्य किया है। जानेन्द्रजी प्रकति के क्रिया-नालापो में एक महत् भावना ने ददान काने । सुग के प्रकाश, वृक्ष की छाया, धरती की शरण में मानव के समक्ष जो गाता गाभाषण का भाव निहित है, उसे मानव-प्राणी नहीं समझ पाता, फारा उगे अपना काकीपन भारी लगने लगता है।' एकाकीपन से मारण पाने के लिए ही सभे प्रह को मिटा देने की भावना जाग्रत हु। बरत जैनेन्म के अगवार पह विसजन की भावना व्यक्ति के एकाकीपन से मुक्ति प्राप्त कन तथा समनट मे 'रव' को समाहित कर देने की भावना में ही उद्भूत है। जनेन्द्र के फा-साहित्य में प्रात्मोत्सग की भावना "तने त्यापक रूप में 1 . जनेन्द्र का साहित्य उनके प्रात्म-निसजन का गान गाथा पी। ।।। पता है। रत्नप्रभा', 'गवार' प्रोर नासपती' या पलानिया पार पाने ५ गतने सान्त हो जाते है कि यदि ' । - गाउन प्रेरित न हा ता उनका जीवन पत्थर को मात ।। समान रोगाट जाय कि उसमे पुन जाने की सम्भावना ही न रह जाय । कि जो विगर्जन की भावना उनके पात्रो को टूटने नही देती, वे अपने जानकामय बनाकर समाज के प्राघात-प्रतिपात का गहकर प्रायलित कद्वारा गमति के प्रति अपने 'मे' भाव को गर्मापत कर शुन्गनत हो जात । जीन्द्र पायदा गन्दर्भो में अपनी अहता को विजित करने की मार उन्मुग होते है तो सागाजिक, सन्दभ मे जहा उनका यह 'पर' को पीडित करता है। उगमे स्व-हित नी भावना प्रमुख होती है, दूसरे वेगक्ति स्तर पर जिसमें यक्ति को अपने 'म' का एकाकी बोध कष्टदायक प्रतीत होता हे २ वह 'स्व' का 'पर' में समाहित करने के लिए विकल होता है। दूसरे २.५ मे उन्हान स्त्री-पुरुप के सम्बन्धो को लिया है। स्त्री अपने स्त्रीत्व में तथा पुकार प्रान पल म नितात एकाकी तथा अपूर्ण है। सी-पूरुप में अपने भाव को खाजती है, पुरुष स्त्री मे पाण पाता है। जनेन्द्र के साहित्य में यह १ प्रगाकर माचवे 'जैनेन्द्र के विचार', (१९३७), बम्बई, पृ०३ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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