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________________ २७८ जैनन्द्र का जीवन-दशन का आधार है। जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे वास्तव का जो रूप स्वीकार किया है वह जीवन की यथार्थ भावनाप्रो और स्थितियो का उद्घाटन करने मे समर्थ है। उन्होने अपने जीवन मे आस-पास की घटनाओ और स्थितियो की सच्चाई को अपने साहित्य मे अभिव्यक्त किया है। उन्होने यथार्थ स्थिति को ज्यो-का-त्यो ही नही चित्रित किया है, वरन् स्थिति के मूल में निहित सत्य को उघारने की चेष्टा की है । जैनेन्द्र का समग्र साहित्य इस तथ्य का प्रमाण है। जैनेन्द्र-साहित्य का मूल्य सत्य जैनेन्द्र के साहित्य का मूल सत्य जीवन की चिरन्तन स्थितियो को लेकर ही अभिव्यक्त हुआ है। जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति सामाजिक मर्यादा के भय से अपने अन्तस् के सत्य को स्वीकार करने मे अक्षम होता है। उसमे इतना साहस नही होता कि वह अपनी प्रकृति को स्वीकार कर सके । सत्य के अस्वीकार मे व्यक्तित्व मे नाना विकृतिया उत्पन हो जाती है, जिन्हे वह अपने साथ चिपटाये हुए जीता रहता है । जैनेन्द्र की दृष्टि से व्यक्ति का तीन चौथाई भाग भीतर है और एक चौथाई बाहर है । हम उस एक चौथाई को ही देखते है, किन्तु जो कुछ दिखता है, सत्य वही नही है । सत्य भीतर यात्मगुहा मे निमृत है । अतएव व्यक्ति जीवन की पूर्णता के हेतु सत्य की सम्पूर्णता का ज्ञान और उसकी स्वीकृति अनिवार्य है। व्यक्ति के अन्तस् में काम और प्रेम के भाव विद्यमान होते है। जिनकी अभिव्यक्ति करने मे वह भय की जडता से बधा रहता है। काम सृष्टि का नियम है । जैनेन्द्र के अनुसार 'सेक्स में' से सृजन है, सृष्टि मैथुनी है, किन्तु यह समस्या भी है । समस्या सेक्स मे से नही, मिथुन में से प्राप्त होती है । मिथुन मे से भगवतस्वरूप शिशु प्राप्त होता है और मिथुन मे से ही पाप का दबाव भी उपजता है। इसीलिए उनकी दृष्टि मे साहित्य के समक्ष यही ध्रुव पहेली है और यही चुनौती है, जिसके उत्तर में साहित्य-रचना हो सकती है। वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य के सम्बन्ध मे सारा भ्रम एकमात्र इसी समस्या को लेकर ही उठता है । उनके साहित्य मे काम और प्रेम की स्वीकृति एक ऐसी जाटिल पहेली है जो सदैव अस्पष्ट ही बनी रहती है। __ जैनेन्द्र के साहित्य मे काम और प्रेम की समस्या को साहित्य में एक नवीन प्रयोग माना जाता है, किन्तु जिसे हम प्रयोग समझते है, वह सत्य ही है । प्रयोग १ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त' (अप्रकाशित)।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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