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________________ जैनेन्द्र और सत्य २७७ प्रयोजनीयता अन्य शास्त्रो का इष्ट हो सकती है, किन्तु साहित्य मे कोरी प्रयोजनीयता अनिष्ट ही करती है। जैनेन्द्र के अनुसार सौन्दर्य ही वह आधार है, जिसपर कला आमीन होती है । 'प्राकृतिक सौन्दर्य'...कला के लिए प्रयोजनीय है, उस हेतु मे सत्य नहीं है। उसके लिए तो सब प्रयोजन से कही बडे उस हेतु से सत्य है कि वे सुन्दर है। सौन्दर्य कला के लिए सत्य का प्रधान रूप है। जैनेन्द्र के अनुसार सौन्दर्य हमे इन्द्रियो से प्राप्त होता हे और सुन्दर, शिव के उप रात सत्य वह सौन्दर्य है, जो आस्था मे ही उद्धत है अर्थात् अगर सत्य हमको प्रारथा मे सुन्दर न प्रतीत होता हो तो सत्य रहेगा ही नही । सुन्दर जिसे हम कहते है वह सामने ही है। वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि में साहित्यिक सत्य का सौन्दर्य से युक्त होना अनिवार्य है। उनकी दृष्टि मे सूक्ष्म सत्य अथवा गेय सत्य या मार्थक सत्य कला के सिंहासन पर नहीं है । साहित्य के सिहासन पर ता सत्य सुन्दर होकर ही जाने वाले है। साहित्य में सत्य उपन्यास तथा कहानी की घटना मे निमृत एव गुढ होता है। घटना ही सत्य को मुखरित करने वाली वाणी है। घटना दीखती है, सत्य को उसमें ढूढना पता है । इम एण्टि से जैनेन्द्र के माहित्य का अवलोकन करने पर उनके विचारों की पूर्णत पुष्टि प्राप्त होती है। जैनेन्द्र के साहित्य का पाकर्षण उनकी सत्याभिव्यक्ति मे ही समाहित है। सत्य और वास्तव जैनेन्द्र के साहित्य में सत्य के स्वरूप का विवेचन करने से पूर्व उनकी दृष्टि मे सत्य और वास्तव का अन्तर जान लेना भी अनिवार्य है । स्थूलत सत्य और वास्तव टूथ और फैक्ट के समानार्थी प्रतीत होते है। किन्तु शब्द सकेत मात्र है। अर्थ पीर भाव शब्द की गहराई में ही प्राप्त होता है । जैनेन्द्र के अनुसार उपन्याग रचना का लक्ष्य सत्य की शोध करना है। रचना द्वारा 'स्व' की पुष्टि करना ही पर्याप्त नही है. वरन् उसके द्वारा समष्टि को सत्य की दिशा मे देना आवश्यक है। वारतव यथार्थ से सम्बद्ध है। 'वास्तव पर सत्य की सीमा नही है । वास्तव में परे भी सत्य है, इसलिए हमारे वास्तव की सीमा हमारी ही सीमा है, सत्य तो प्रमीम है। वास्तव है 'फैक्ट' और सत्य है 'ट्र थ' । जैनेन्द्र का आदर्श वास्तव से गत्य की ओर उन्मुख होना है। वास्तव सत्याभिव्यक्ति १. जैनेन्द्र से गाक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार । २ जनेन्द्र कुमार · साहित्य का श्रेय और प्रेय' ।। ३, उनकी अभिलाषा वास्तव में नही हो सकती। उपन्यास का हार्द सत्य है, फेवन उसका शरीर वारराव में है। 'जीने के लिए शरीर चाहिए, पर वह आरमा क मन्दिर प म हो।' जनेन्द्रकुमार : 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', पृ० सं० १७० ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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