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________________ जैनेन्द्र और सत्य २७६ परम्परा गे एक पडी है, किन्तु सत्य तो सनातन है। यो सत्य का स्वरूप भी परिवर्तनीय हो गकता है, किन्तु स्वरूप के परिवर्तन से आत्मा की स्थिति में कोई अन्तर नही पाता। जैनेन्द के साहित्य में काम और प्रेम को सत्य के रूप मे स्वीकार किया गया है। अतएव उनकी रचनाओ में गर्भित काम और प्रेममूलक सत्यता को जानना अनिवार्य है। यद्यपि पचम परिच्छेद में उपर्युक्त तथ्य की ओर इगित किया गया है, तागि जनेन्द्र के साहित्य में सत्य का विश्लेषण करते हुए उनकी समग्र पिट का विवेचन अनिवार्य प्रतीत होता है । जैनेन्द्र ने जीवन की विविधता म प्रेममूलक सत्य की ऐसी एकसूत्रता की सृष्टि की है, जिसमें समस्त पार्थक्य प्रेम द्वारा उद्भुत ऐनय में विलीन हो जाता है। जैनेन्द्र के अनुसार मानव जीवन का सार हृदयगत पीडा मे निहित है। पीडा अथवा व्यथा ही वह पूंजी है, जिसे अपने में समेटकर जीवन सार्थक हो जाता है । पीडा मे प्रेम का रस है। जैनेन्द्र के अनुसार जीवन मे ‘परम दुख' का क्षण ही परम सुख का क्षण है। जिस क्षरण हम अत्यधिक त्रास पा रहे होते है, उसी समय मानो रस की परम अनुभूति होती है। अतएव दुख मे ही जीवन का स्वाद है। पीडा विरह उद्भुत है। विरह मे ही प्रेम का आकर्षण है। प्रेम में प्राप्ति अथवा दायित हा गाव न होकर विसर्जन का भाव होता है। प्रेम गे काम अन्तर्भूत हैनाम की स्पीति में ही प्रेम की पूर्णता है। पूर्णता अर्थात् सत्य की प्राप्ति के मार्ग में हर कदम अपनी सार्थकता रखता है। प्रेम की पूर्णता के मार्ग में काम की स्वीकृति अनिवार्य है। जैनन्द्र ने स्पष्टत स्वीकार किया है कि 'प्रेम समग्र होकर इन्द्रियो गे स्वतन्त्र या इन्द्रियातीत हो जायेगा । फिर वहा प्रतिस्पर्धा का सवाल ही पो रहना चाहिए ? पति पत्नी सम्बन्ध सामाजिक है, इन्द्रियावलम्बी है, प्रेम भरपूर होते होते इतना अधिक हो जाता है कि पालम्बन की उसे आवश्यकता नहीं रहती। अतएव प्रेम की पूर्णता के लिए इन्द्रियो को मार्ग रूप में स्वीकार करना अनिवार्य है। जैनेन्द्र के अनुसार प्रेम में तीखापन आने से ही प्रतीन्द्रियना नहीं प्राप्त हो सकती। अतीन्द्रिय प्रेम मे शरीर को और इन्द्रियो को कृतकामता अनुभव होनी नाहिए। जैनेन्द्र ने अपने साहित्य में सत्य को सहर्ष स्वीकार किया है । सकोच अथवा लज्जा के कारण तिरस्कार नही किया है। उनके साहित्य मे दृष्टिगत प्रेम के मूल में गरीर और आत्मा की पूर्णता ही दृष्टिगत होती है। जैनेन्द्र के अनुगार यह प्रामचेष्टा प्रत्येक काम और भोग मे से अतृप्ति ही बनी चली जाती है। अनवरत प में इरा स्थिति से गुजरती हुई वह पाती है कि उपलक्ष्य फिर १. जनेद्र कुमार काग, प्रेम और परिवार', पृ० स० १०० ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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