SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र और व्यक्ति २३७ गावी जी भी अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख मे विश्वास नहीं करते। इनकी दृष्टि मे मानवमात्र का सुखी होना अनिवार्य है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे भारत जैसे गरीब देश के लिए जीवन स्तर बढाने से पूर्व गरीबी को दूर करना आवश्यक है। ट्रस्टीशिप गरीबी को दूर करने के लिए अमीरो से धन छीनने का कार्य समता की दृष्टि से पूर्णत सफल नही हो सकता। ऊपर से थोपा गया कोई भी नियम, कानून अधिक स्थायी नही होता । जब कि हृदयगत प्रेरणा चिरस्थायी होती है । गाधी जी सम्पत्ति के इस अपहरण को अनैतिक कृत्य मानते है। उनकी दृष्टि मे हृदय परिवर्तन-द्वारा ही मानवता का सच्चा हित सम्भव हो सकता है। वे यह आवश्यक नही मानते कि अमीर गरीब हो जाय और उसका धन छीन लिया जाय । उनके अनुसार व्यक्ति का निजी सम्पत्ति पर अधिकार उसी प्रकार होना चाहिए, जिस प्रकार ट्रस्टी का ट्रस्ट के धन पर होता है । इस प्रकार समाज मे समानता की भावना ही उत्पन्न होती है तथा रक्तक्रान्ति की आवश्यकता भी नही पडती। गाधी जी ने साधन और साध्य दोनो की विशुद्धता पर बल दिया है। गाधी जी की इस अपरिग्रही नीति का जैनेन्द्र के साहित्य पर बहुत अधिक प्रभाव लक्षित होता है । जैनेन्द्र के अनुसार, 'अपना कहने को हमारे पास कुछ भी नही होना चाहिए ।" जैनेन्द्र अर्थ के स्टेट मे केन्द्रित होने की नीति के प्रबल विरोधी है। ऐसे समाजवाद को वे राजकीय पूजीवाद (स्टेट कैपिटलिज्म) की सज्ञा देते है। जैनेन्द्र के अनुसार कानून के जोर से सम्पत्ति पर से निजी अधिकार उठा देने और सार्वजनिक अधिकार बना देने से जड और नौकरशाही का ऐसा कसा शिकजा ही खडा हो सकता है, जिसमे मानव-सम्भावनाए खिलने के बजाय मुरझा जायगी । इस प्रकार मानव-विकास कुल मिलाकर घाटे मे नही रहेगा।" जैनेन्द्र के अनुसार गरीबी और अमीरी के भेद को पूर्णत मिटाया ? 'I do not believe in the doctrine of the greatest good for the greatest number - Mahatma Gandhi 'The Voice of Truth' (P 230, 237) २ 'ग्रेटैस्ट गुड आफ पाल', पृ० स० २३७ । ३ जैनेन्द्रकुमार . 'समय और हम', पृ० स० ४०६ । ४. जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० स १४२ । ५. जैनेन्द्रकुमार . 'समय, समस्या और सिद्धान्त' (अप्रकाशित)।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy