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________________ २३८ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन नही जा सकता । समाज मे गरीब और अमीर सदैव बने ही रहेगे। यान्त्रिक समानता उत्पन्न करना नितात अस्वाभाविक है। जैनेन्द्र के अनुसार ट्रस्टीशिप की भावना ही राष्ट्र का कल्याण करने में समर्थ हो सकती है। धन-सचय का निषेध करते हुए उन्होने अर्थ की परमार्थोन्मुखता पर बल दिया है। पूजीपति को वे सम्पत्ति का सरक्षक ही समझना चाहते है, उपभोक्ता नही। ___ जैनेन्द्र के साहित्य मे ट्रस्टीशिप की भावना स्पष्टत लक्षित होती है। 'कल्याणी' तथा 'अनन्तर' मे इस तथ्य पर विशेषत बल दिया गया है। कल्याणी भगवान के मन्दिर के नाम से जो धन सचित करती है, वह परमार्थ हेतु ही प्रयुक्त होता है । 'अनन्तर' मे 'शान्ति धाम' की जैसी व्यवस्था व्यक्त की गई है, उसपर गाधी जी का प्रभाव स्पष्टत परिलक्षित होता है। उसमे व्यक्त किया गया है कि 'समस्त एकत्रित धन समाज का है और धन वाले सिर्फ खजाची है । पूजीपति का कार्य समाज की आवश्यकतानुसार धन का व्यय करना है।३ 'जितना जिसके पास अतिरिक्त है, छोडना होगा। वस्तुत जैनेन्द्र ने पूजी का निषेध न करके व्यक्ति की स्वार्थमयी प्रवृति की ही अवहेलना की है। जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति भाग्य और परिस्थिति के अनुसार भी गरीब तथा अमीर दिखायी देते है। भाग्य के परिणाम का निराकरण सभव नही हो सकता। यही कारण है कि जैनेन्द्र की दृष्टि मे पूर्ण समता सभव नही हो सकती। __मार्क्स सामाजिक विषमता के मूल मे आर्थिक स्थिति को ही प्रधान मानते है, किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार गरीबी का सवाल एकदम आर्थिक नही है । सिर्फ धन का न होना दरिद्र का लक्षण नही है । उसका सहारा लेकर जो बेबसी और अोछाई की भावना प्रादमी मे समा जाती है, असली रोग तो वह हे और इस लिहाज से रक और दीन का प्रश्न नैतिक प्रश्न है । वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार गरीब और अमीर के मध्य की खाई भावना की विशुद्धता, प्रेम और सौहार्द्र के १ 'आई डू नाट बिलीव इन डीड इन यूनिफार्मिटी' जयप्रकाशनारायण 'सोशलिज्म सर्वोदय एण्ड डैमोक्रेसी', पृ० स० ३४० । २ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० स० १४३ । ३ 'शोषण को समाप्त करना कोई निरा आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम नही है, बल्कि उसके अग रूप मे ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि भी अनिवार्य होते है। —जैनेन्द्रकुमार 'अन्तर', पृ० १६१ । ४ जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० १६१ । ५ जैनेन्द्रकुमार 'सोच विचार', पृ० स० १३६ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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