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________________ १६४ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन पर ही वह बाहर जाती है । वस्तुत विच्छेद स्वय मे श्रेयष्कर नही है । अन्तर्जातीय विवाह जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो मे प्रेम और विवाह को लेकर ही विशेष रूप से विवेचन किया गया है, किन्तु अन्तर्जातीय विवाह का सामाजिक दृष्टि से निषेध नही किया है । जैनेन्द्र की समस्त रचनाओ मे जातिवाद को लेकर कोई समस्या ही नही उत्पन्न होती । उन्होने कही भी यह नही प्रकट किया है कि जाति-भेद के कारण विवाह सम्भव नही हो सकता। विवाह के सम्बन्ध मे उन्होने अन्तर्जातीय विवाह को पूर्णत स्वीकार किया है । यही कारण है कि उन्होने जाति-भेद की समस्या को अपनी रचनाओ मे गम्भीरता से विवेचित नही किया है । 'कल्याणी मे उन्होने अन्तर्जातीय विवाह के कारण होने वाले लाभ पर भी प्रकाश डाला है । वस्तुत जैनेन्द्र छूत-अछूत, नीच-ऊच आदि के प्रश्न को लेकर सहज रूप से ही निर्मल सिद्ध कर देते है। जिस प्रकार उन्होने अपने साहित्य मे जाति-भेद के प्रश्न को सामान्य समझकर छोड दिया है, उसी प्रकार समाज के अछूत वर्ग पर भी अलग से विचार नही किया है । सत्यता यह है कि वे व्यक्ति को मात्र 'व्यक्ति' के रूप में ही समझने का प्रयास करते है। इसलिए उनकी दृष्टि मे जाति-भेद अथवा ऊच-नीच का भेद विशेष महत्व नही रखता। काम भावना 'सृष्टि के मूल में' 'काम' है । सृष्टि ईश्वर की कामना का ही परिणाम है। ससार स्त्री-पुरुषमय है। उनके मध्य आकर्षण का केन्द्र काम-भावना ही है। एकाकी जीवनयापन की कल्पना निराधार है। जैनेन्द्र के अनुसार अकेलापन घेर लेता है तभी काम उससे उद्धार करने के लिए आता है। काम जीवन का अनिवार्य सत्य है। मानव जीवन की पूर्णता चार पुरुषार्थ, अर्थात् अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति मे ही सम्भव है। जैनेन्द्र के अनुसार मोक्षरूपी मजिल धर्मपूर्वक अर्थ और काम के मार्ग से गुजर कर ही प्राप्त हो सकती है। यद्यपि शुकदेव जैसे अपवाद शास्त्रो मे अवश्य मिलते है, जो बालब्रह्मचारी रहकर मोक्षोन्मुख हुए किन्तु सामान्यत इस जीवन मे काम की उपेक्षा नही कर सकते । जैनेन्द्र के साहित्य मे काम द्वारा भोगोन्मुखता को प्रश्रय न मिल कर उसके प्रेममूलक रूप को ही स्वीकार किया गया है । प्रेम मे आत्मदान के साथ शरीर-दान भी अनिवार्य ही नहीं, स्वाभाविक भी है । जैनेन्द्र के साहित्य मे 'प्रेम' शब्द का व्यापक अर्थों में प्रयोग किया गया है। अपनी
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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