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________________ जैनेन्द्र और समाज १६३ ही बुरा है । स्त्री-पुरुष भी परस्पर दोषपूर्ण है। यदि एक-दूसरे के दोषो को देखकर सम्बन्ध विच्छेद की घटना घटित होती है तो उसे स्वाभाविक नही माना जा सकता । जैनेन्द्र के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरुष, सदोष है, अतएव समाज और परिवार मे समझौते के बिना एक पग भी नही चला जा सकता। जैनेन्द्र पति-पत्नी के आजन्म सम्बन्ध विच्छेद को उचित नही मानते । उनके अनुसार किन्ही विषम परिस्थितियो मे पति-पत्नी का साथ रहना पारस्परिक सहानुभूति को पूर्णतया विनष्ट करने वाला हो जाता है, तब उन्हे कुछ काल तक एक दूसरे से अलग रहना चाहिए । अलग रहने मे पारस्परिक सहृदयता पूर्णतया विनष्ट नही होती, केवल वैचारिक तनाव बना रहता है। तनाव मे दूरी उपयुक्त है किन्तु सम्बन्ध तोड देने से भविष्य मे प्रेम की सम्भावना का प्रश्न ही नही उठता । जैनेन्द्र का प्रमुख सिद्धान्त प्रेम को स्थायी रखना है। उनके अनुसार साहित्य का मूल स्वर प्रेम है । अप्रेम मे वे सुखी जीवन की कल्पना ही नही करते । 'विच्छेद' कहानी मे उन्होने वैवाहिक जीवन मे उत्पन्न होने वाले तनाव से बचने के लिए समझौते को आवश्यक माना है। वस्तुत जैनेन्द्र के पात्रो को वैवाहिक जीवन मे चाहे कितना ही कष्ट क्यो न सहना पडे किन्तु वे कानूनी रूप से सबधविच्छेद नही करते । व्यक्तिगत सम्बन्धो मे कानून को लाकर वे परस्पर की निष्ठा को विनिष्ट करना श्रेयस्कर नही समझते । कभी-कभी विवाह उनके समक्ष विवशता बन जाता है, किन्तु वे अपने आदर्शों से विचलित नही होते । यही कारण है कि उनकी प्रेमिकाए पति के प्रति घृणा या उपेक्षा का भाव नही रख पाती। उनके पति-पात्र भी अधिकाशत बहुत नम्र है । वे आन्तरिक पीडा की पूजी को सजोए हुए सारा जीवन व्यतीत कर सकते है, किन्तु सम्बन्धविच्छेद की कल्पना भी नहीं करते।' 'सुखदा' मे पति-पत्नी एक दूसरे से दूर चले जाते है, किन्तु प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धविच्छेद नही करते । ऐसी स्थिति में उनके हृदय का प्रेम समाप्त नही होता, वरन् प्रायश्चित मे परिणत होकर और भी सघन हो जाता है । 'त्यागपत्र' मे मृणाल सम्बन्धविच्छेद को आवश्यक नही समझती। पति के द्वारा घर से निकाल दिए जाने १ 'मेरा मानना है कि दुनिया मे कोई दो व्यक्ति ऐसे नही हुए जो एक-दूसरे के लिए जनमे कहे जा सके। खिचाव और तनाव तो स्त्री-पुरुष मे प्रकट और सहज है। सामन्जस्य इसलिए सहज नही है, उसे साधना होता है। उसके लिए सयम और अभ्यास की आवश्यकता है।' -जैनेन्द्रकुमार . 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० स० ६६ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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