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________________ जैनेन्द्र और समाज १६५ समग्रता मे प्रेम मे काम वर्जित नही है । राधा और मीरा के आदर्श को ही उन्होने प्रपने साहित्य मे विशेषत स्वीकार किया है । राधा-कृष्ण और मीरा भारतीय साहित्य ही नही, जीवन के ऐसे दो असामान्य और चिरन्तन आदर्श है, जिनके प्रेम के सम्बन्ध मे शका का प्रश्न ही नही उठता। उनके वैवाहिक जीवन मे भी प्रेम अपनी चरम सीमा पर आरूढ था । राधा और मीरा के प्रेम मे इन्द्रिय- उपेक्षा नही है, वरन् उनमे अतीन्द्रियता दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र के अनुसार अतीन्द्रियता इन्द्रियो की सम्पूर्ण स्वीकृति मे ही सम्भव हो सकती है । व्यक्ति इन्द्रियमार्ग से इतना परे चला जाए कि उसे स्थूल इन्द्रियगत आकर्षण का ही न रह जाय । प्रतीन्द्रियता का बोध प्रात्मतत्व मे लीन होकर ही सम्भव हो सकता है । 'काम' इन्द्रियगत चेष्टा है, वह प्रेम का ही अग है । सामान्यत काम के सम्बन्ध में अत्यन्त ही अप्राकृतिक तथा अस्वास्थ्यकर दृष्टिकोण प्रचलित रहा है । यही कारण है कि काम प्रवृति अवदमित होती रहती है। नदी के प्रकृत प्रवाह के सदृश काम भावना का सहज प्रवाह हानिप्रद नही हो पाता, किन्तु बधे हुए जल के सदृश अवदमित काम वासना सहज मार्ग को छोडकर विकृत रूप मे प्रकट होती है । उस समय उसका स्वरूप विस्फोटक और विध्वसात्मक हो जाता है । ऐसी स्थिति में व्यक्ति मे अनेक शारीरिक विकृतिया तथा मनोविकार उत्पन्न हो जाते है । वस्तुत जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे काम के सहज प्रवाह को ही स्वीकार किया है । आधुनिक मनोवैज्ञानिको ने 'काम' के प्रति हमारे दृष्टिकोण को स्वस्थ बनाने का प्रयास किया है। साहित्य और मनोविज्ञान का घनिष्ट सम्बन्ध है, क्योकि दोनो मे व्यक्ति की समस्या पर प्रकाश डाला गया है। आधुनिक युग मे साहित्य पर मनोविज्ञान का अत्यधिक प्रभाव दृष्टिगत होता है । पात्रो की समस्या सामाजिक से अधिक व्यक्तिगत और मनोग्रस्त है । उपन्यासकार जैनेन्द्र के सम्बन्ध मे प्राय यही धारणा प्रचलित है कि उनकी रचनाए कामप्रधान तथा असामाजिक है । यह सत्य है कि जैनेन्द्र ही प्रथम लेखक है, जिन्होने जीवन के उपेक्षित पक्ष को नि सकोच रूप से समाज के स्तर पर अभिव्यक्ति प्रदान की है । बर्टेण्ड रसेल के अनुसार 'इस जमाने में दो प्रभावशाली विचार वाले लोग है, उसमे से एक प्रत्येक बात को आर्थिक सूत्र से प्राप्त करते है, दूसरा प्रत्येक बात को मैथुनात्मक सूत्र से प्राप्त करता है । इनमे पहला मार्क्स का विचार है और दूसरा फ्रायड का ।" जैनेन्द्र अर्थ और काम दोनो मे से किसी को अन्तिम नही मानते । अर्थ और काम तो जीवन की समानान्तर १ एलिस की 'साइकालजी आफ सेक्स' से उद्धृत ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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