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________________ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन १६२ हो जाता है, किन्तु प्रेम-विवाह द्वारा प्रेम मे उत्सर्ग के स्थान पर दायित्व का भाव बढ जाता है । व्यवस्थित विवाह के पश्चात् भी प्रेम स्थायी रहता है वस्तुत 'जैनेन्द्र ने प्रेम के स्थायित्व के हेतु प्रेम विवाह का निषेध किया है । 'त्यागपत्र' मे मृणाल का प्रेम-विवाह सम्भव नही हो सका है । मृणाल सामाजिक मर्यादा को स्थायी रखते हुए भी अपने ग्रन्तस् के प्रेम को विनष्ट नही होने देती । उसके हृदय मे अपने प्रेमी पात्र के प्रति घृणा की भावना नही जाग्रत होती । जैनेन्द्र के पात्र जीवनपर्यन्त भाग्य के थपेडे खाते हुए भी विवाह के दायित्व को सामाजिक मर्यादा के अन्तर्गत ही स्वीकार करते है । वैवाहिक जीवन चाहे कितना भी कष्टमय क्यो न हो जाय किन्तु वे अपने आदर्श से विचलित नही होते । 'त्रिवेणी' मे प्रेम-विवाह सम्भव न हो सकने के कारण त्रिवेणी का जीवन बहुत खिन्नतापूर्वक व्यतीत होता रहता है । विवाह के बाद भी उसका प्रेम विनष्ट नही होता । घर पर प्रेमी के आने से उसकी सारी मन स्थिति अभिभूत हो उठती । इसमे प्रेम की पीडा से छुटकारा नही चाहा गया है । प्रेम वात्सल्य में परिणत होकर सारा का सारा प्रभाव भाव से भर देता है । त्रिवेणी की कुझलाहट उसकी विपन्नता की ओर भी इगित करती है । निष्कर्षत जैनेन्द्र की दृष्टि मे प्रेम विवाह उचित नही है किन्तु विवाह के बाद भी प्रेम बना ही रहता है । प्रेम को जीवत बनाए रखने के लिए दूरी श्रावश्यक प्रतीत होती है । एलिस महोदय भी प्रेम-विवाह के पक्ष मे नही है । जैनेन्द्र के विचारो से उनमे स्पष्टत साम्य दृष्टिगत होता है । उन्होने प्रेम-विवाह के निषेध के हेतु समाज तथा परिवार की ओर से उत्पन्न होने वाली बाधाम्रो को आवश्यक माना है ।' जैनेन्द्र के विचारो पर भारतीय संस्कृति का भी प्रभाव लक्षित होता है । जैनेन्द्र के अनुसार विवाह को भोग में ही सीमित कर देना अनिष्टकर है ।" विवाह विच्छेद जैनेन्द्र ने जिस प्रकार प्रेम विवाह को अस्वीकार किया है, उसी प्रकार विवाह - विच्छेद ( तलाक) का भी पूर्ण निषेध किया है । जैनेन्द्र ने सामाजिकसमस्याओ को आध्यात्मिक स्तर पर सुलझाने का प्रयास किया है। पति-पत्नी का सम्बन्ध सामाजिक है, किन्तु बाह्य स्थूलता मे गर्भित सूक्ष्मता व्यक्ति की आत्मता का क्रोध कराती है । कोई भी व्यक्ति पूर्ण रूप से न अच्छा है और न १ हैवलाक एलिस 'यौन मनोविज्ञान', प्र० स०, पृ० स० २५५ । २ जैनेन्द्र कुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया,' भाग ७, पृ० स० ११५ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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