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________________ जैनेन्द्र और सगाज १६१ जब प्रेम को विवाह मे प्राबद्व कर दिया जाता है तो उसमे पारस्परिक सोहार्द से अधिक तनाव की सम्भावना रहती है । गृहस्थी यथार्थ जगत की घटना है। प्रेम अतीन्द्रिय तथा प्रात्मलोक की अभिव्यक्ति है। जैनेन्द्र के अनुसार व्यवस्थित विवाह मे पारस्परिक तनाव होने पर भी एक-दूसरे के प्रति घृणा और तिरस्कार की भावना नही उत्पन्न होती। 'प्यार का तर्क' कहानी मे उन्होने प्रेम-विवाह का पूर्ण निषेध किया है। इस कहानी मे उन्होने प्रेम विवाह सम्बन्धी विचारो को बहुत स्पष्टता के साथ वणित किया है। जैनेन्द्र के अनुसार प्राप्ति की कामना मे प्रेम का पोषण नही होता । प्रेम मे त्याग अनिवार्य है। प्रेम-पात्र से दूरी होने पर भी आत्मिक स्तर पर मिलन-सुख का-सा आनन्द प्राप्त होता है, किन्तु प्रेम मे वैवाहिक बन्धन उत्पन्न करने से घृणा अथवा तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जो कि असह्यनीय है। प्रेम के अभाव मे जीवन किसी प्रकार सम्भव हो सकता है, किन्तु घृणा व्यक्ति के पारस्परिक स्नेह और प्रेम को सदैव के लिए विनष्ट कर देती है। विवाह रुमानी प्रेम पर नही टिक सकता । 'जिस प्रेम पर विवाह सचमुच टिका रह सकता है, वह व्यक्ति प्रेम नही, धर्म प्रेम होता है । वह कर्तव्य के नाते प्रेम होता है, रूप के नाते प्रेम नही हुआ करता।'' जैनेन्द्र विवाह के सम्बन्ध मे पुरुषार्य से अधिक भाग्य को महत्वपूर्ण मानते है । भाग्य के निर्णय पर व्यक्ति सन्तुष्ट रहता है, उसमे द्वन्द्व या आग्रह की स्थिति नही उत्पन्न हो सकती । पुरुषार्थ मे व्यक्ति का अह प्रबल रहता है और दोनो ओर से आग्रह होने के कारण जीवन तनावपूर्ण तथा असतोषजनक स्थिति से गुजरता है । जैनेन्द्र विवाह के हेतु स्वय वर के चुनाव को उचित नही मानते। वे विवाह मे धार्मिक वृत्ति को आवश्यक समझते है। वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे प्रेम-विवाह को किसी भी स्थिति मे स्वीकृति नहीं मिल सकी है। उनके उपन्यासो मे प्रेम-सम्बन्ध अधिकाशत विवाह के बाद ही दृष्टिगत होता है । 'विवर्त' मे विवाह के पूर्व ही प्रेम सबध की परिकल्पना की गयी है, किन्तु प्रेम-विवाह सम्भव नही हो सका है। जैनेन्द्र के अनुसार प्रेम जीवन का अनिवार्य अग है। प्रेम के अभाव मे जीवन जडवत् १. जैनेन्द्र कुमार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० स० १६६ । २ 'अपने को लेकर स्त्री या पुरुष को विवाह के क्षेत्र मे साथी चुनने के लिए निकल जाना पडे, इस अवस्था को मै बहुत उन्नत सामाजिक व्यवस्था नही मानता।' -जैनेन्द्रकुमार . 'प्रश्न और प्रश्न', १६६२, प्र० स०, पृ० १६८-६६ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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